अन्ना-आंदोलन क्या सत्ता की राजनीति में किसी ताकत के साथ बँधा है?
कांग्रेस के कुछ नेताओं का आरोप है कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ अन्ना-मंडली का गठजोड़ है। यह है या नहीं इसे साबित करना खासा मुश्किल काम है, खासतौर से तब जब अन्ना-मंडली खुद इससे इनकार करती है। तथ्यों के सहारे अनुमान लगाया जा सकता है। पर सवाल यह है ही नहीं। सवाल यह है कि क्या अन्ना-आंदोलन या अन्ना टाइप आंदोलन का वक्त गया? क्या मुम्बई को ‘फ्लॉप शो’ के बाद कहानी खत्म? ऐसा सम्भव नहीं। अन्ना हों या न हों, आने वाले वक्त में जनता का दबाव और बढ़ेगा। हमारी राजनीति अभी तक खामोश प्रजा की आदी रही है। प्रजा जो फॉलोवर होती है। जातीय और धार्मिक आधार पर राजनीति करने वाली ताकतें अपने सॉलिड बेस के सहारे खड़ी रहना चाहती हैं। पर यह लम्बा चलने वाला नहीं है। नए समय के फॉलोवर सवाल भी करेंगे।
सन 2011 के साल की उपलब्धि है ‘राष्ट्रीय मंतव्य’(सेंस ऑफ नेशन) का प्रकटन। देश लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास और विस्तार चाहता है। लम्बे समय से वह अपने नेताओं के भाषण सुनता रहा है। अब वह खुद भी कुछ कहना चाहता है। ज़रूरत है उन संस्थाओं की जिनके मार्फत देश कुछ कहे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एक नया शब्द दिया है ‘ब्रेक’। इंतजार करें ब्रेक के बाद होता क्या है। जनवाणी में प्रकाशित
सन 2011 के साल की उपलब्धि है ‘राष्ट्रीय मंतव्य’(सेंस ऑफ नेशन) का प्रकटन। देश लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास और विस्तार चाहता है। लम्बे समय से वह अपने नेताओं के भाषण सुनता रहा है। अब वह खुद भी कुछ कहना चाहता है। ज़रूरत है उन संस्थाओं की जिनके मार्फत देश कुछ कहे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एक नया शब्द दिया है ‘ब्रेक’। इंतजार करें ब्रेक के बाद होता क्या है। जनवाणी में प्रकाशित
हिन्दू में केशव का कार्टून
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