सोने पे सुहागा पर देखिये :
तीन तलाक़ एक साथ देने वाले की पीठ पर कोड़े बरसाते थे इस्लामी ख़लीफ़ा
आवारगी को औरत की आजादी का नाम न दें : आलिम-ए-खवातीन
एक मुश्त तीन तलाक़ देना ‘बिदअत‘ है, गुनाह है, तलाक़ का मिसयूज़ है। यह कमी मुस्लिम समाज की है न कि इस्लाम की। अल्लाह की नज़र में जायज़ चीज़ों में सबसे ज़्यादा नापसंद तलाक़ है। जीवन में बहुत से उतार-चढ़ाव आते हैं, बहुत से अलग-अलग मिज़ाजों के लोगों के सामने बहुत तरह की समस्याएं आती हैं। जब दोनों का साथ रहना मुमकिन हो और दोनों तरफ़ के लोगों के समझाने के बाद भी वे साथ रहने के लिए तैयार न हों तो फिर समाज के लिए एक सेफ़्टी वाल्व की तरह है तलाक़। तलाक़ का आदर्श तरीक़ा कुरआन में है। कुरआन की 65 वीं सूरह का नाम ही ‘सूरा ए तलाक़‘ है। तलाक़ का उससे अच्छा तरीक़ा दुनिया में किसी समाज के पास नहीं है। हिन्दू समाज में तलाक़ का कॉन्सेप्ट ही नहीं था। उसने इस्लाम से लिया है तलाक़ और पुनर्विवाह का सिद्धांत। इस्लाम को अंश रूप में स्वीकारने वाले समाज से हम यही कहते हैं कि इसे आप पूर्णरूपेण ग्रहण कीजिए। आपका मूल धर्म भी यही है।
तलाक़ का सही तरीक़ा क़ुरआन की सूरा ए तलाक़ में बता दिया गया है। एक साथ तीन तलाक़ देना क़ुरआन का तरीक़ा नहीं है। इस तरीक़े को पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद स. ने सख्त नापसंद फ़रमाया है और जो आदमी एक साथ तीन तलाक़ दिया करता था, इस्लामी ख़लीफ़ा इसे इस्लामी शरीअत के साथ खिलवाड़ मानते थे और इसे औरत का हक़ मारना समझते थे। ऐसे आदमी की पीठ पर कोड़े बरसाए जाते थे। लिहाज़ा इस्लामी ख़लीफ़ाओं के काल में तीन तलाक़ एक साथ देने की हिम्मत कोई न करता था। आज भी ऐसे लोगों की पीठ पर कोड़े बरसाए जाएं तो औरत के जज़्बात के साथ खिलवाड़ तुरंत रूक जाएगा।
औरत के जज़्बात का सबसे बड़ा रक्षक है क़ुरआन।
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