निर्मल बाबा का ईश कृपा का कारोबार पूरी तरह इलेक्ट्रोनिक मीडिया की बदौलत चल रहा है. प्रिंट मीडिया ने साथ उनका कोई लेना देना नहीं रहा. प्रिंट और इंटरनेट मीडिया ने जब उनकी तरफ निगाह डाली तो उनके तीसरे नेत्र का भरम खुलने लगा. अब इस बात पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की जरूरत है कि टीवी चैनलों को किराये पर टाइम स्लॉट देने के पहले पात्र-कुपात्र पर विचार करना चाहिए या नहीं. एक निर्धारित कीमत पर यह किसी को किसी तरह के कार्यक्रम के लिए दे दिया जाना चाहिए या चैनल के संपादकीय विभाग को कार्यक्रम की रूपरेखा देखने के बाद सहमति-असहमति का अधिकार देने चाहिए और उसकी अनुशंसा को आवंटन का आधार बनाया जाना चाहिए. कोई आचार-संहिता होनी चाहिए या नहीं.
यदि निर्मल बाबा जैसे लोग रातो-रात लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच कर लोगों की पिछड़ी चेतना का लाभ उठाते हुए आर्थिक दोहन करने लगते हैं तो इसके लिए उपजाऊ ज़मीन मुहैय्या करने का काम टीवी चैनल ही तो करते हैं. भारत ऋषि-मुनियों का देश रहा है. यहां बड़े-बड़े संत महात्मा गुज़रे हैं. त्यागी भी और ढोंगी भी. आमलोग उनके बीच ज्यादा फर्क नहीं कर पाते. जिस तरह लोग अपने लिए उपयुक्त जन-प्रतिनिधि का चुनाव नहीं कर पाते उसी तरह सही आध्यात्मिक गुरु का भी चयन नहीं कर पाते. इसमें उनका नहीं भक्ति योग का दोष है जो अदृश्य शक्ति के सामने आत्म-समर्पण कर देने की शिक्षा देता है और राजा के दैवी को मान्यता दिलाता है. जन-मानस पर भक्तियोग का प्रबल प्रभाव नहीं होता तो निर्मल बाबा का ईश कृपा का कारोबार भी नहीं चलता. फिलहाल स्टार-न्यूज़ ने निर्मल बाबा का कार्यक्रम बंद करने की घोषणा की है लेकिन शेष 34 चैनल उनके विज्ञापन से होने वाले लाभ का मोह त्याग सकेंगे अथवा नहीं कहना कठिन है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने बाबागिरी के धंधे को चमकने का मौका दिया है. कई चैनल तो उनके मालिकाना अधिकार में हैं. लिहाज़ा मीडिया जगत के लिए यह आत्ममंथन का समय है. इसका उपयोग जन-चेतना को उन्नत करने के लिए हो या उसे पीछे धकेलने के लिए.
fact n figure: कृपा के कारोबार में टीवी चैनलों की भूमिका:
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