बता रहे हैं -
बड़ा खिलाड़ी कौन, नीतीश या मोदी ?
मंडल आंदोलन के सबसे फिनिश प्रॉडक्ट माने जाने
वाले नीतीश कुमार सही समय पर सही चाल चलने के लिए जाने जाते हैं। इसलिए जब
पिछले सप्ताह 14 जून को अपनी पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में
पहली बार उन्होंने कहा था कि एनडीए की ओर से उन्हें सेक्युलर छवि वाला
शख्स ही पीएम के दावेदार के रूप में कबूल होगा पढ़ें खबर।
तभी साफ हो गया था कि एनडीए में अब एक बड़ा घमासान छिड़ने वाला है। बिना
नाम लिए उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी
की दावेदारी खारिज की थी और परोक्ष रूप से अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर दी
थी। नीतीश ने पहली बार यह बात पटना में कही थी। क्षेत्रीय अखबारों में
इसकी चर्चा भर हुई और दिल्ली तक इसकी गूंज सुनाई नहीं पड़ी। जाहिर है जिस
बहस को नीतीश छेड़ना चाहते थे, वह जोर नहीं पकड़ पाई। इसलिए उन्होंने
बेहतर मीडिया मैनेजमेंट के साथ दोबारा वही बात दोहराई और उसके बाद जो बहस
शुरू हुई है, वह थमने का नाम नहीं ले रही है।
नरेंद्र मोदी के नाम पर सार्वजिनक रूप से नीतीश का नाक-भौंह सिकोड़ना
नई बात नहीं है। लेकिन, आम चुनाव से दो साल पहले पीएम की दावेदारी को तूल
देना बड़े फलक पर छाने की उनकी तैयारी को दिखाता है। याद कीजिए, 2002
फरवरी में जब गुजरात दंगा हुआ तब नीतीश कुमार बीजेपी के नेतृत्व वाली
सरकार में रेल मंत्री थे और किसी ने शायद ही सुना हो कि उन्होंने इसके
विरोध में सार्वजनिक रूप एक भी शब्द बोला है। उस समय एक ही मंत्री
रामविलास पासवान ने कथित रूप से इसके विरोध में सरकार से इस्तीफा दिया था,
लेकिन उसकी भी असली वजह यह थी कि उनसे संचार मंत्रालय ले लिया गया था। इस
वजह से वह नाराज थे और गुजरात दंगे ने शहादत देने के लिए उन्हें मुफीद
मौका मुहैया करा दिया।
भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता वह दुधारू गाय है, जिसे हर नेता
अपने फायदे के लिए दुहने की फिराक में रहता है। असल में बिना किसी अपवाद
के किसी भी नेता और पार्टी को धर्मनिरपेक्षता से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं
है।
1 comments:
हँसुवा की शादी लगी, पर नितीश की रीत ।
आ'मोदी मद में रहे, गा खुरपी के गीत ।
गा खुरपी के गीत, स्वार्थ का भैया चक्कर ।
युद्ध-काल यह शीत, डाल इंजन में शक्कर ।
करते खेल खराब, तीर से कई निशाने ।
कीचड़ का चर कमल, बड़े गहरे हैं माने ।।
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