कुछ ज़मीं के और कुछ अंबर के थे.
अक्स सारे डूबते मंज़र के थे.
कुछ इबादत का सिला मिलता न था
देवता जितने भी थे पत्थर के थे.
दिल में कुछ, होठों पे कुछ, चेहरे पे कुछ
किस कदर मक्कार हम अंदर के थे.
खुल के कुछ कहने की गुंजाइश न थी
हम निशाने पर किसी खंज़र के थे.
मेरी बातें गौर से सुनते थे सब
हम उड़ाते जब तलक बेपर के थे.
आस्मां को नापना मुश्किल न था
फ़िक्र में हमलोग बालो-पर के थे.
उलझनों में इस कदर जकड़े थे हम
हम न दफ्तर के न अपने घर के थे.
तोड़ डाली वक़्त ने सारी अकड़
तेज़ वर्ना हम भी कुछ तेवर के थे.
-----देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: देवता जितने भी थे पत्थर के थे:
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