10 हज़ार वैज्ञानिकों की वर्षों की मेहनत और खरबों डॉलर के खर्च के बाद जिस हिग्स बोसोंस नामक सूक्ष्मतम कणों को ढूंढ निकाला. प्राचीन भारत के ऋषि-मुनि उसे वीरान जंगलों में फलफूल खाकर बिना किसी खर्च के तलाश लेते थे. सृष्टि की उत्पत्ति और विकास में इन कणों की भूमिका के रहस्यों को भी उन्होंने अपनी साधना के बदौलत सुलझा लिया था. वैदिक ऋचाओं में उनकी खोज के निष्कर्ष मौजूद हैं. उन्होंने अध्यात्म के रास्ते अपनी खोज यात्रा संपन्न की थी. आज भौतिक विज्ञानं के रास्ते उन हजारों वर्षों पूर्व खोजे गए रहस्यों को दुबारा खोजा जा रहा है या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी सत्यता की पड़ताल की जा रही है.सवाल उठता है यह रास्ता अत्यधिक खर्चीला है. वैज्ञानिक खोज होने चाहिए. इसपर किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती. लेकिन आज जब पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था अपने संकट के चरम पर पहुंच रही है तब खोजे हुए सत्य को दुबारा खोजने में इतने भारी भरकम खर्च का क्या औचित्य है. क्यों न पहले वेदों में मौजूद कणाद ऋषि की ऋचाओ का गंभीरता से अध्ययन कर लिया जाये. उसके निष्कर्षों के आधार पर आगे की खोज यात्रा की जाये. भारत की प्राच्य विद्याओं में इतना ज्ञान विज्ञानं भरा पड़ा है की उनका अध्ययन करने में कई पीढियां कम पड़ें.
यह सच है कि हिग्स बोसोंस के जरिये वैज्ञानिक किसी वस्तु को भारहीन कर देने की क्षमता प्राप्त करने की उम्मीद कर रहे हैं. इसमें सफलता मिली तो आवश्यक वस्तुओं की ढुलाई काफी सहज हो जाएगी. ऊर्जा की बचत होगी. लेकिन भारहीन करने के यंत्र पर क्या खर्च होगा अभी इसका आकलन नहीं किया जा सकता. पौराणिक काल में हनुमान के पास उड़ने की शक्ति थी. नारद जी नारायण-नारायण करते हुए पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाया करते थे. यह हिग्स बोसोंस या गौड पार्टिकल का ही तो कमाल नहीं था. इसका अध्ययन भी किया जाना चाहिए. इसपर भी विचार किया जाना चाहिए कि अन्वेषण का भौतिकवादी रास्ता सुगम है या अध्यात्मिक.
fact n figure: कंद मूल खाकर दूंढा था गौड़ पार्टिकल:
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