कांटों से भरी शाख पर खिलते गुलाब को.
हमने क़ुबूल कर लिया कैसे अज़ाब को.
दिल की नदी में टूटते बनते हुबाब को.
देखा नहीं किसी ने मेरे इज़्तराब को.
चेहरों से झांकते नहीं जज़्बात आजकल
रखते हैं लोग जिल्द में दिल की किताब को.
लम्हों की मौज ले गयी माजी के सब वरक़
अब तुम कहां से लाओगे यादों के बाब को.
बेचेहरगी ने थाम लिया होगा उनका हाथ
चेहरे से फिर हटा लिया होगा नकाब को.
ऐसे भी कुछ सवाल थे जो हल न हो सके
ताउम्र ढूढ़ते रहे जिनके जवाब को.
तहजीब के फलक पे सितारों के दर्मियां
आंखें तलाशती रहीं आवारा ख्वाब को.
सबकी नज़र में खार सा चुभने लगा था वो
देखा था जिस किसी ने मेरे इन्तखाब को.
वो जिनकी दस्तरस में है सिमटा हुआ निजाम
दावत भी वही दे रहे हैं इन्कलाब को.
हम यूं नवाजते हैं उन्हें अपने मुल्क में
जैसे कोई शिकार नवाज़े उकाब को.
गौतम हमारे बीच में दीवार क्यों रहे
अबके तुम अपने साथ न लाना हिजाब को.
----देवेंद्र गौतम
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4 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
मुखर अभिव्यक्ति ...
बेहतरीन !
एक बात खुली
कहीं अब भी
है हिजाब
पता चली !
बढिया ..
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