कैसे बनाया जाए हिंदी को जनभाषा ?
‘ऐ मुहब्बत , ज़िंदाबाद‘अगर ये हिंदी गाने हैं तो फिर उर्दू गाने किसे कहा जाएगा ?
क्या इसे बौद्धिक बेईमानी नहीं कहा जाएगा ?
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11 comments:
हिन्दी भाषा मैं कई भाषाओं का मिश्रण है |इस लिए यह सोच बेकार है कि इन शब्दों को हिन्दी कहा जाए या उर्दू
आशा
यह हमारी भाषा है |पंडित और मुल्ला की जबान हमारी भाषा नहीं हो सकती |
यह हमारी भाषा है |पंडित और मुल्ला की जबान हमारी भाषा नहीं हो सकती |
अब ऊपर इस चित्र को ही देख लें जिसमें लिखा है अ, ब, स, द यानि ए,बी, सी, डी का हिन्दीकरण, यानि हमें ही जागरूक होना होगा। जो हो रहा है, उसे स्वीकार लेना ही आज विकराल समस्या का रूप लेता जा रहा है। अखबारों ने चंद्र बिन्दु का सौ प्रतिशत समाप्त कर दिया है, एक समय लोग चंद्रिबन्दु को लिखना ही भूल जायेंगे। इसलिए हमें ही जागरूक होना होगा-
हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान।
हिन्दी को हम दें सम्मान।
हिन्दी हो जन की भाषा,
हिन्दी हो अपनी पहचान।।
हिन्दी और उर्दू का तो चोली दामन का साथ है, दोनों ही एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। हिन्दी को ख़तरा तो अंग्रेजी और प्रान्तीय भाषाओं से है, जिससे आम आदमी हिन्दी से जुड़ नहीं पा रहा। जहाँ तक गीतों का सवाल है, उर्दू गीत भी हिंदी के बिना अधूरे हैं क्यों कि लिखे तो हिन्दी लिपि में ही जायेंगे तभी पसंद भी किये जायेंगे और हिंदी गीत बिना उर्दू शब्दों के शृंगार विहीन लगते हैं, चाहे वह समझ में आयें या नहीं जैसे- ''जिहाले मस्कीं मुकुम ब रंजिश बहारे हिज़रा बेचारा दिल है'' कितने लोग समझते हैं इसका अर्थ? यह ज़बान तो रच बस गई है, पाकिस्तान में उर्दू और सिंधी भले ही फारसी में लिखी जाती हो पर फ़ख़्र करते हैं कि यहाँ कितने लोग उर्दू और सिंधी को फ़ारसी में लिखते हैं, आम आदमी तो इसे हिन्दी में ही लिखता है, उर्दूदाँ या शाइरों की बात नहीं कर रहा, और भले ही सिंधी आपस में हिंदी में बात नहीं करते पर हिंदी से बेइन्तहा मुहब्बत करते हैं, अपनी भाषा किसी पर ढोलते नहीं, ऐसे ही उर्दू है, हमें ख़ुद ही तय करना होगा कि हम हिंदी को कितना चाहते हैं और उसके लिए कितना कुछ कर सकने में समर्थ हैं, फिर देखिये राह आसान हो जायेगी।
सादर आमंत्रण आपकी लेखनी को... ताकि लोग आपके माध्यम से लाभान्वित हो सकें.
खुशी होगी आपका सार्थक साथ पाकर.
आइये मिलकर अपने शब्दों को आकार दें
http://jan-sunwai.blogspot.com/2011/09/blog-post.html
@ आकुल जी ! आपका स्वागत है।
‘ऐ मुहब्बत ज़िंदाबाद‘
यह गाना फ़िल्म मुग़ले आज़म का है और यह गाना ही नहीं बल्कि इसके डायलॉग भी फ़ारसी लिपि में लिखे गए थे।
क्या इसे उर्दू फ़िल्म नहीं कहा जाएगा ?
इसके बावजूद इसे हिंदी फ़िल्म का प्रमाण पत्र दिया गया।
क्या आप बता सकते हैं कि कैसे पहचाना जाए कि बोलने वाला हिंदी बोल रहा है या उर्दू ?
इस पोस्ट में जो लिंक दिया गया है, उस पोस्ट में यही बहस की गई है।
आप इसमें कुछ मदद कर सकते हैं तो ज़रूर कीजिए .
जमाल साहब, आप भूल रहे हैं कि उर्दू कोई भाषा ही नहीं है। यह तो बस खिंचड़ी है। और उर्दू के लिए ज्ञानपीठ लेने वाले फ़िराक साहब तक ने माना कि हिन्दी की एक शैली मात्र है उर्दू। जैसे हिन्दी साहित्य में हम ब्रज-मैथिली-भोजपुरी-पंजाबी तक की कविताएँ पढ़ते हैं वैसे ही उर्दू को भी हिन्दी में शामिल माना जाय। बेकार शोर न किया जाय। मुगले आजम में दिलीप साहब ने कई तत्सम शब्द भी बोले हैं दुर्गा खोटे के साथ। यह ध्यान रखें। और वैसे भी जब उर्दू का अपना कोई व्याकरण है ही नहीं तब उसे भाषा कहना बस एक तमाशे सा है। हिन्दी के व्याकरण और अरबी-फ़ारसी लिपि और शब्दों से भाषा नहीं बदल जाती।
उर्दू भाषा बस काल्पनिक सी है, वास्तविक सी नहीं। हाँ, हम हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान का विरोध करते हैं। उर्दू भी भारतीय भाषा है, हमारी भाषा है। इसे अब भाषा का दर्जा दिया तो गया है, इसलिए ऐसा कह रहा हूँ। हाँ, कुछ नौटंकीबाज और अलगाववादी मुस्लिम लोग उर्दू के नाम तमाशा जरूर करते रहे हैं। सबूत के लिए भी हम हैं और पुख्ता सबूत के साथ हम साबित कर भी लेंगे।
हिन्दी-उर्दू अलग भाषाएँ ही नहीं है तब पहचानने का सवाल कहाँ से पैदा होता है। उर्दू हिन्दी के जितना करीब है उतना तो हिन्दी क्षेत्र की भोजपुरी-मगही-मैथिली आदि भी नहीं।
आगे आपका स्वागत है। इस तरह मुगले आजम हो या जोधा अकबर, सब हिन्दी फिल्में हैं, यह हमेशा ध्यान में रहे। बहस यहाँ नहीं, मेरे ब्लाग पर हो सकती है।
@ चंदन कुमार जी ! आपने कहा कि उर्दू भाषा काल्पनिक सी है।
यानि आपकी नज़र में इसका कोई वुजूद ही नहीं है।
फिर आपने कहा है कि हिंदी-उर्दू अलग भाषाएं नहीं हैं।
इसी के साथ आपने कहा है कि भोजपुरी आदि के मुकाबले उर्दू हिंदी के ज्यादा करीब है।
किसी वास्तविक चीज के करीब वही चीज हो सकती है जो उससे अलग हो और वास्तविक हो।
कृप्या इस पर विचार कीजिए।
उर्दू और हिन्दी दो भाषाएँ नहीं हैं। वे एक ही भाषा की शैलियाँ मात्र हैं। यह बात तो अब उर्दू के विद्वान भी स्वीकार करते हैं। जहाँ तक लिपि का प्रश्न है तो देश काल के अनुसार एक ही भाषा अनेक लिपियों में लिखी जाती है। हिन्दी को रोमन में लिखने से वह अंग्रेजी नहीं हो जाती। देश काल और तहजीब के अनुसार एक ही भाषा के उपयोग कर्ताओं द्वारा भिन्न प्रकार के शब्दों का प्रयोग भी किया जाता रहा है। लेकिन इस से भी वे दो भाषाएँ नहीं हो जातीं। भाषा की पहचान उस के क्रिया पद हैं। हिन्दी और उर्दू के क्रियापद समान हैं।
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