क्या हम सब बुध्दिजीवी एक दूसरे के घर्म को नीचा दिखाने के लिए सोशल वेबसाइट (फेसबुक, गूगल, ब्लॉग और ऑरकुट आदि) एकत्रित हुए है ? हम बुध्दिजीवी कब से एक धर्म के हो गए ? क्या हम सब धर्म से बढ़कर "इंसानियत" को ही अपना सबसे बड़ा धर्म नहीं मानते हैं ?
मैंने अपने पिछले दो सालों की रिसर्च
(शोध) कार्य में महसूस किया कि कोई(कुछ) हिंदू, मुस्लिम धर्म की बुराई कर
रहा और कोई मुस्लिम भाई, हिंदू धर्म की बुराई कर रहा है. इसी प्रकार
हर(कुछ) धर्म के अनुयायी सोशल वेबसाइटों को उपयोग दूसरे धर्मों की बुराई
करने के कर रहा है. हम आखिर कब देश को आगे लेकर जाने के लिए विचार करना और
लिखना शुरू करेंगे.
यह मेरे विचार है कि हम बुध्दिजीवी अगर
कुछ नहीं कर सकते है. तब किसी धर्म, जाति, व्यक्ति विशेष को नीचा दिखाने
का कार्य भी नहीं करना चाहिए. देश में फैली बुराइयों को खत्म करने के लिए
"कुछ" कहूँ या थोडा-सा कार्य करना चाहिए.
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