सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?
क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.
खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.
-----देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
और (कुफ़्फ़ार अरब) कहते हैं कि इस (रसूल) पर उसके परवरदिगार की तरफ़ से
मौजिज़े क्यों नही नाजि़ल होते (ऐ रसूल उनसे) कह दो कि मौजिज़े तो बस ख़ुदा ही
के पास हैं और मै तो सिर्फ़ साफ़ साफ़ (अज़ाबे ख़ुदा से) डराने वाला हूँ
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और (कुफ़्फ़ार अरब) कहते हैं कि इस (रसूल) पर उसके परवरदिगार की तरफ़ से
मौजिज़े क्यों नही नाजि़ल होते (ऐ रसूल उनसे) कह दो कि मौजिज़े तो बस ख़ुदा ही
के पास ...
2 comments:
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे...sab kuch kah gayi ye panktiyan.....
ek alag soch liye hue kavita....umda
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