सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?
क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.
खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.
-----देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
अज़हर हाशमी जी ने रतलाम से फोन पर शुभकामनाएं दी...
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अज़हर हाशमी जी ने रतलाम से फोन पर शुभकामनाएं दी.......
" खूबसूरत शब्द शिल्प के साथ पुस्तक का रूप दिया है अप्रतिम है" - अजहर हाशमी
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2 comments:
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे...sab kuch kah gayi ye panktiyan.....
ek alag soch liye hue kavita....umda
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