सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?
क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.
खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.
-----देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
प्रशासन का क्या दोष...शहरवासी ही गड्ढों से बचकर नहीं चलते हैं
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भास्कर सम्पादक भाई सर्वेश शर्मा जी का आर्टिकल, प्रशासन का क्या
दोष...शहरवासी ही गड्ढों से बचकर नहीं चलते हैं
*सर्वेश शर्मा/ बात-बेबाक
जरा, बचकर चलिए जन...
2 comments:
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे...sab kuch kah gayi ye panktiyan.....
ek alag soch liye hue kavita....umda
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