ब्लॉगर मनोज कुमार जी का विचार
सूफ़ीमत की संपूर्ण साधना प्रेमाश्रित रही है। सूफ़ियों के लिए प्रेम का लक्ष्य ईश-सान्निध्य प्राप्ति है। इसी के लिए वह साधना करता है, इसी के लिए वह दुख सहता है, पीड़ाओं को सहन करता है। इसी के लिए वह तड़पता है, परेशान रहता है। जब वह मंजिल पा लेता है, अपने को मिटा कर वह उसी का हो जाता है, जिसको उसने अपना प्रियतम बनाया था। व्यक्ति साधना की उच्चभूमि में पहुंचने पर भी इनकी दृष्टि में लोकरक्षा और लोकरंजन के प्रति गहरा सरोकार बना रहा। परम्परा को स्वीकार करते हुए भी रूढ़ एवं जर्जर तत्वों की जकड़न को इन्होंने स्वीकार नहीं किया।
प्रेम मानव मन की नैसर्गिक क्षुधा है। प्रेम के लिए किसी प्रकार की संहिता का बनाया जाना संभव नहीं है। प्रेम अतर्कपूर्ण है। तर्क और प्रेम एक साथ नहीं रह सकते। तर्क प्रेम का निषेध करता है। अवरोध उत्पन्न करता है। जब कोई प्रेम करता है तो वह अतर्कपूर्ण बन जाता है। इसी तरह जब कोई तर्कनिष्ठ होता है तो वह प्रेमपूर्ण नहीं रह जाता। प्रेम का अनुभव नितांत वैयक्तिक होता है। इसलिए सूफ़ी-साधक प्रेम के जिन नियमों का पालन कर परमात्मा से तादातम्य स्थापित करता है, वे नियम उसके नितांत वैयक्तिक होते हैं। जैसे संसार की प्रत्येक वस्तु का स्वभाव अपने मूल की ओर लौटना है, उसी तरह आत्मा भी अपने मूल की ओर लौटना चाहती है। प्रत्येक आत्मा में उसी की ओर लौटने की इच्छा निहित रहती है। साधारण व्यक्ति मोहमाया में पड़कर अपनी आत्मा की इस नैसर्गिक क्षुधा की उपेक्षा ही नहीं करता बल्कि उसकी इच्छा का इतना दमन करता है उसे आत्मा की आवाज़ तक सुनाई नहीं देती। जब साधारण व्यक्ति के भीतर परमात्मा को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है, तब वह अध्यात्म-मार्ग पर चलना शुरु करता है। ऐसे व्यक्ति को सालिक (साधक) कहते हैं।
http://www.testmanojiofs.com/2012/03/2.html
1 comments:
``ब्लॉग की खबरों” में मेरे इस आलेख को जगह देने के लिए आभार!
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