मां The Mother (Urdu Poetry Part 3)
सर झुकाए ग़मज़दा बच्चा इधर आया नज़र
दौड़ कर बच्चे को घर में ख़ुद बुला लाती है मां
हर तरफ़ ख़तरा ही ख़तरा हो तो अपने लाल को
रख के इक संदूक़ में दरया को दे आती है मां
दर नया दीवार में बनता है इस्तक़बाल को
ख़ाना ए काबा के जब नज़्दीक आ जाती है मां
लेने आते हैं जो मौलाना इजाज़त अक्द की
घर में जाती है कभी आंगन में आ जाती है मां
शोर होता है मुबारकबाद का जब हर तरफ़
बेतहाशा शुक्र के सज्दे में गिर जाती है मां
पोंछ कर आंसू दुपट्टे से, छुपा कर दर्द को
ले के इक तूफ़ान बेटी से लिपट जाती है मां
चूम कर माथाा, कभी सर और कभी कभी देकर दुआ
कुछ उसूले ज़िंदगी बेटी को समझाती है मां
होते ही बेटी के रूख्सत मामता के जोश में
अपनी बेटी की सहेली से लिपट जाती है मां
छोड़ कर घर बार जो सुसराल में रहने लगे
अपने उस बेटे की सूरत को तरस जाती है मां
करके शादी दूसरी हो जाए जो शौहर अलग
ख़ूं की इक इक बूंद बच्चों को पिला जाती है मां
छीन ले शौहर जो बच्चे, दे के बीवी को तलाक़
हाथ ख़ाली, गोद ख़ाली हाय रह जाती है मां
सुबह दर्ज़ी लाएगा कपड़े तुम्हारे वास्ते
ईद की शब बच्चों को ये कह के बहलाती है मां
मर्तबा मां का ज़माना देख ले पेशे ख़ुदा
इस लिए फ़िरदौस से पोशाक मंगवाती है मां
उंगलियां बच्चों की थामे अपने भाई के हुज़ूर
बहरे क़ुरबानी जिगर पारों को ख़ुद लाती है मां
कोई उन बच्चों से पूछे, क्या है शादी का मज़ा
ब्याह की तारीख़ रख कर जिस की मर जाती है मां
हाले दिल जा कर सुना देता है मासूमा को वो
जब किसी बच्चे को अपने क़ुम में याद आती है मां
जब लिपट कर रौज़ा की जाली से रोता है कोई
ऐसा लगता है कि जैसे सर को सहलाती है मां
भूक जब बच्चों को आंखों से उड़ा देती है नींद
रात भर क़िस्से कहानी कह के बहलाती है मां
सब की नज़रें जेब पर हैं, इक नज़र है पेट पर
देख कर चेहरे को हाले दिल समझ जाती है मां
कम सिनी में जो बिछड़ जाते हैं बच्चे बाप से
ढूंढने कूफ़ा के बाज़ारों में आ जाती है मां
ज़र्रा ज़र्रा है वहां की ख़ाक का ख़ाके शिफ़ा
झाड़ कर बालों से इतना पाक कर जाती है मां
अपने ही घर के दरो दीवार दुश्मन हों तो फिर
मार दी जाती है, या तंग आके मर जाती है मां
दिल का जब नासूरा बन जाता है ये ज़ख्मे जहेज़
तेल मिट्टी का छिड़क कर हाय मर जाती है मां
ज़िंदगी दुश्वार कर देता है जब ज़ालिम समाज
ज़हर बच्चों को खिला कर, ख़ुद भी मर जाती है मां
जुज़ ख़ुदा उस दर्द को कोई समझ सकता नहीं
किस लिए आखि़रा चिता की भेंट चढ़ जाती है मां !!
शुक्रिया हो ही नहीं सकता कभी उस का अदा
मरते मरते भी दुआ जीने की दे जाती है मां
बेकसी ऐसी कि उफ़ , इक बूंद पानी भी नहीं !!
अश्क बहरे फ़ातिहा आंखों में भर लाती है मां
दौड़ कर बच्चे लिपट जाते हैं उस रूमाल से
ले के मजलिस से तबर्रूक घर में जब आती है मां
जाते जाते भी अज़्ज़ादारी ए शाहे करबला
जो मिली ज़ैनब से वो मीरास दे जाती है मां
मुददतों गोदी में ले के, करके मातम शाह का
मजलिसों में बैठने का ढंग सिखलाती है मां
चाहे जब, चाहे जहां कोई करे ज़िक्रे हुसैन
छोड़ कर जन्नत को उस मजलिस में आ जाती है मां
उम्र भर देती है बच्चों को ग़ुलामी का सबक़
अपने बच्चों को वफ़ा के नाम कर जाती है मां
जब तलक ये हाथ हैं हमशीर बेपर्दा न हो
इक बहादुर बावफ़ा बेटे से फ़रमाती है मां
जब सनानी ले के आता है मदीने में बशीर
दोनों हाथों से कमर थामे हुए आती है मां
चारों बेटों की शहादत की ख़बर जिस दम सुनी
अपने पाकीज़ा लहू पर फ़ख़्र फ़रमाती है मां
जिस के टुकड़ों पर पला सारा मदीना मुददतों
उस की बेटी को हर इक फ़ाक़े पे याद आती है मां
दीन पर जब वक्त पड़ता है तो सेहरे की जगह
बहरे क़ुरबानी कफ़न बच्चों को पहनाती है मां
दोपहर में अपना जो सब कुछ लुटा दे दीन पर
वो बहादुर शेर दिल ख़ातून कहलाती है मां
फ़र्ज़ जब आवाज देता है तो आंसू पोंछ कर
छोड़ कर बच्चों के लाशे शाम को जाती है मां
बेकसी भी चीख़ उठी आखि़र दयारे शाम में
अधजले कुरते में जब बच्ची को दफ़नाती है मां
किस ने तोड़ी है दिले क़ुरआने नातिक़ में सिनां
ज़ख्मे नेज़ा देख कर सीना पे चिल्लाती है मां
तीर खा कर मुस्कुराता है जो रन में बेज़ुबां
मरहबा कहते हुए सज्दे में गिर जाती है मां
सामने आंखों के निकले गर जवां बेटे का दम
ज़िंदगी भर सर को दीवारों से टकराती है मां
-रज़ा सिरसवी
'प्यारी माँ' ब्लॉग पर
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