चिश्ती संप्रदाय के माध्यम से सूफ़ीमत का प्रचार भारत में करने तथा “चिश्तिया परंपरा” की नींव भारत में रखने का श्रेय मध्य एशिया के सजिस्तान (सीसतान) में जन्मे हज़रत ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती सिज्ज़ी (बाद में अजमेरी) (1142-1236 ई.) को जाता है।
एक बार एक दरवेश उनकी सेवा में हाजिर हुआ। उसने प्रश्न किया, “शुद्ध और पुण्य जीवन की पहचान क्या है?”
ख़्वाजा ने जवाब दिया, “इस्लामी शरीअत के आधार पर “अम्र” (वांछित) तथा “नहि” (निषेध) का पालन करना।” अम्र या जिन बातों का ईश्वर ने आदेश दिया है, उनका पालन करें और नहि अर्थात जिन बातों को ईश्वर ने मना किया है, उनका निषेध करें।
उन्होंने ईश्वर की आराधना और लोगों की सेवा के बीच कोई भेद नहीं किया। उनका मानना था कि इंसान के दो फ़र्ज़ हैं। एक, इबादत (आराधना) और दूसरा इताअत (आज्ञापालन)। इबादत से तात्पर्य है कि पूरे आदर और सम्मान के साथ ईश्वर के सम्मुख स्वयं को समर्पित कर दिया जाए। इताअत से तात्पर्य यह है कि ईश्वर ने प्राणी मात्र के प्रति जो कर्तव्य निर्धारित किए हैं, उन्हें निष्ठा से पूरा करे। उसका समय ईश्वर के बंदों की भलाई के लिए समर्पित रहे। ख़्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती ने सूफ़ीमत के नौ सिद्धांत प्रतिपादित किए थे। एक सूफ़ी के लिए ये सिद्धांत है –
1. धन नहीं अर्जित करना चाहिए।
2. ऋण नहीं लेना चाहिए।
3. किसी व्यक्ति के सामने हाथ नहीं फैलाना चाहिए।
4. भविष्य के लिए कोई भी चीज़ बचा कर नहीं रखना चाहिए। आवश्यकता से अधिक हो तो उसे निर्धनों में बांट दिया जाना चाहिए।
5. किसी व्यक्ति का अहित नहीं सोचना चाहिए। शत्रुओं के लिए भी प्रभु से उसकी सद्बुद्धि की कामना करनी चाहिए।
6. कोई पुण्य कार्य सम्पन्न हो, तो उसे अपने पीर की दुआ समझें या रब की कृपा।
7. कोई पाप घटित हो जाए, तो उसके लिए ख़ुद को जवाबदेह समझना चाहिए। उससे बचना चाहिए। ईश्वर से भय करना चाहिए।
8. नियमित रूप से दिन में उपवास रखें तथा रात में इबादत करें।
9. मौन रहना चाहिए। जब बोलना अनिवार्य हो तभी बोलें। इस्लामी शरीअत में अधिक बोलना निषेध है। उन्हीं शब्दों का प्रयोग करें जिनसे ईश्वर प्रसन्न हों।
उनकी विचारधारा, सादा जीवन और साधु-प्रवृत्ति ने लोगों का दिल जीत लिया और उन्हें काफ़ी ख्याति मिली।
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हमारे ब्लॉग और आलेख को यहां स्थान देकर हमें सम्मानित करने के लिए आभार!
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