राष्ट्रपति के पद को सुशोभित करने के बाद भी प्रणव मुखर्जी अपनी पुरानी भूमिका से मुक्त नहीं हो पाए हैं. स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम उनके संबोधन से तो यही प्रतीत होता है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलनों की चिंता का विषय संसद और सरकार का हो सकता है राष्ट्रपति का नहीं. अब उन्हें कांग्रेस के ट्रबुल शूटर की भूमिका का निर्वाह करने की भी जरूरत नहीं. संसदीय संस्थाओं की गरिमा की चिंता स्वाभाविक है. लेकिन क्या गरिमामय संस्थाओं में बैठे लोग लाखों-करोड़ों के घोटालों को अंजाम दें तो यह चिंता का विषय नहीं होना चाहिए? इससे संसदीय संस्थाओं की गरिमा पर आंच नहीं आती? क्या जनता की शांतिपूर्ण आवाज़ को इस नाम पर दबा देना लोकतंत्र के लिए अनुकूल है कि इससे अशांति फ़ैल रही है. यानी उसे अहिंसा की जगह हिंसा का रास्ता अपनाना चाहिए. उग्रवादियों और आतंकवादियों को इस तरह का प्रवचन क्यों नहीं दिया जाता.
क्या विदेशी बैंकों में जमा काला धन चिंता का विषय नहीं होना चाहिए? इस सवाल पर लाल कपडा के आगे सांड की तरह भड़कने वाले नेताओं के खिलाफ इसलिए नहीं बोलना चाहिए कि इससे संसद की गरिमा पर आंच आ रही है? क्या वोट डालने के बाद जनता को सरकार के कार्यों की समीक्षा नहीं करनी चाहिए? आखिर संसद बनती किसकी बदौलत है. यदि जनता की लोकतांत्रिक तरीके से न्यायोचित मांगों से संसदीय संस्थाओं की गरिमा भंग होती है तो इसे अभी और इसी क्षण भंग हो जाना चाहिए और लुटेरों की रक्षा में लगी संस्थाओं की गरिमा तो क्या उनका अस्तित्व भी ज्यादा दिनों तक बरक़रार नहीं रहनेवाला. इतना तय है.
---देवेंद्र गौतम
fact n figure: बांसुरी नई तो सुर पुराना क्यों!:
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2 comments:
टेर लुटेरे न सुनें, प्रणव नाद न दुष्ट |
हुन्कारेंगें जब सभी, तब होंगे संतुष्ट |
तब होंगे संतुष्ट, पुष्ट ये धन दौलत से |
चोरी की लत-कुष्ट, सफेदी झलके पट से |
तन पे खद्दर डाल, लूटते हैं गांधी भी |
सारे खड़े बवाल, हिले इनकी न जीभी ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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