आदरणीय चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ जी की पोस्ट पर हिंदूवादी भाइयों का ऐतराज़ कितना जायज़ है ?
देखिये यह पोस्ट :
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ का ऐसे लोगों के लिए यह सन्देश है:
आभार रविकर जी आपको इस प्रविष्टि के लिए! इन कट्टरपंथी रूढ़िवादी हिन्दुओं को इस पोस्ट 'गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश' में ऐसी कौन सी गाली दिख गयी जो कि भड़क उठे चर्चामंच पर लगाने से यह मेरी समझ में नहीं आ रहा और इनको क्या समझ आये कि हिन्दुस्तान में सारे पर्वों में चाहे वह हिन्दुओं के हों या अन्य धर्मावलम्बियों के कैसे हम समभाव से सहभागिता करते हैं! इन्हें भारत के गांवों में आकर देखना चाहिए कि हम किस तरह होली, दीवाली, और ईद एक साथ मनाते हैं! कितने आदर से हम अपने गांव के बुज़ुर्ग जुम्मन को जुम्मन चाचा कहते हैं ये कुटिल, आलसी और छद्मरूपधारी छुद्रमना धर्मांधी क्या जाने?...रविकर भाई! हम चाहते हैं कि तथाकथित विवादित पोस्ट जो इन सभी को गाली लगी उसका लिंक आप अपनी चर्चामंच पर देकर लोगों की राय लें कि इसमें कौन सी गाली है जिसके नाते सभी चर्चाकारों पर मूढ़मति होने का आरोप ये विद्वान लोग लगा रहे हैं...ब्लॉग जगत में ऐसे भड़काऊ तथा कट्टरपंथियों की खुलकर भर्त्सना होनी ही चाहिए...उस पोस्ट का लिंक हमने अपनी टिप्पणी में ऊपर दे दिया है।
लिंक:
http://besurm.blogspot.in/2012/11/blog-post_17.html?showComment=1353234734212#c5629979070439672175
11 comments:
साहित्यिक मंचों पर ये सब मुद्दे नहीं आयें तो अच्छा है स्वस्थ वातावरण में सांस लेना सबके लिए लाभप्रद है
आभार डॉ. साहब!
@ राजेश कुमारी जी ! अपने सही कहा है.
सभी चर्चाकारों पर मूढ़मति होने का आरोप ये विद्वान लोग लगा रहे हैं...ब्लॉग जगत में ऐसे भड़काऊ तथा कट्टरपंथियों की खुलकर भर्त्सना होनी ही चाहिए.
sahmat hun.
१-[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.
= आपसे धर्म के मामले में विरोध रखने वालों से आप बुरा व्यवहार कर सकते हैं, करना ही चाहिए ...
[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.
= जो आपके धर्म को न मानें उनसे मित्रता न करो उनके मित्रों से भी नहीं |
---भई.. किसी भी किताब में गैर-मुस्लिम व मुस्लिम , मित्रता न करें, धर्मयुद्ध किया या न किया उनसे दोस्ती करो उनसे नहीं ...आदि शब्द व तथ्य आने का अर्थ ही है वह किताब ही असंगत है आगे और कहानी की आवश्यकता ही नहीं है...क्या किसी अन्य धर्म ग्रन्थ में एसा वाक्य व तथ्य हैं क्या ...
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ जनाब,
इस पोस्ट 'गैर-मुसलमानों के साथ संबंधों के लिए इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश' में हिन्दुओ के लिए कोई गाली नही है. लेकिन इस्लाम के अनुसार दिशानिर्देश के प्रचार प्रसार का जितना अधिकार आपको है उतना ही इन दिशानिर्देशोँ से प्रतिकार का अधिकार हिन्दु बँधुओ को भी है. यदि वे नही चाहते कि ऐसा प्रचार प्रसार वाला दिशानिर्देश उन पर थोपा जाय और वह भी किसी पुरानी पोस्ट पर चर्चा बनाकर तो इसमेँ बुराई क्या है? उन्हेँ प्रतिकार का पूर्ण अधिकार है.
प्रतिकारकर्ता स्वघोषित कुटिल, आलसी और छद्मरूपधारी है वे अपने को इसी शैली मेँ प्रकट भी करते है वे नही जानते थे तो मात्र आपका उद्देश्य.अब आपके प्रसार प्रचार का मामला प्रकट हो गया तो उनका विरोध भी बँद प्राय है और आपका अधिकार भी. आप बँधु करेँ प्रचार प्रसार. कोई एतराज नहीँ. लेकिन जो अपना लिंक वहाँ सुविधाजनक नही पाते ऐसे मेँ उन्हेँ सम्मान दिया जाना चाहिए.
कट्टरपंथियों की खुलकर भर्त्सना कीजिए, सम्यक दृष्टि की आत्मा जीवित रहे तो सार्थक है.
@ डा. श्याम गुप्ता जी ! ये आयतें युद्धकाल की हैं. युद्धकाल में जब दुराचारी लोग जासूसी की नीयत मुसलामानों से मेल मिलाप करें तब उन दुश्मनों से सावधान करने के लिए ये आयतें अवतरित हुई हैं . यह नियम दुनिया में आज भी जारी है. अगर किसी किताब में यह नियम नहीं है तो उस किताब से युद्धकाल में मार्गदर्शन लेना नुकसान दे सकता है.
अच्छे नियम को न मानना और कुर'आन पर ऐतराज़ करना ठीक नहीं है.
इस विषय में ज़्यादा जानकारी के लिए आप यह लेख देखें-
इस्लाम आतंक या आदर्श ?
दूसरी बात यह है कि पैग़ंबर साहब की जीवनी ख़ुद पढ़िए तब आपको यह ऐतराज़ नहीं
रहेगा और अगर ऐतराज़ हो तो भी उसे शालीन ढंग से व्यक्त करें।
पढ़ाई लिखाई और मां बाप कोई भी हमें बदतमीज़ी करने के लिए नहीं कहते।
बदतमीज़ी से आप फ़िज़ा में केवल कड़वाहट घोल सकते हैं किसी का मन और विचार नहीं
पलट सकते।
आपका सादर धन्यवाद !
अगर किसी किताब में यह नियम नहीं है तो उस किताब से युद्धकाल में मार्गदर्शन लेना नुकसान दे सकता है.
----युद्धकाल के निर्देशों के लिए युद्ध की किताबें होती हैं धार्मिक नहीं ...वे अधर्मी --धार्मिक की बातें करती हैं....मुसलमान --गैर मुसलमान की नहीं.....
--- क्या एतराज़ व सचाई बयान को आप बदतमीजी कहते हैं.....
चंद्रभूषण जी जैसे गाफिल लोग यह सब नहीं समझपाते ----
सत्य पक्ष और असत्य में विरोध और युद्ध का लंबा इतिहास है
@ डा. श्याम गुप्ता जी ! आप आदरणीय चन्द्र भूषण मिश्रा जी पर व्यंग्य करते हुए कह रहे हैं कि ‘चन्द्रभूषण मिश्रा जैसे ग़ाफ़िल लोग यह सब नहीं समझ पाते...‘
इस तरह की व्यंग्योक्ति अनुचित है जबकि खुद आपको ही अपनी मालूमात दुरूस्त करने की सख्त ज़रूरत है।
आप कह रहे हैं कि ‘युद्धकाल के निदेर्शों के लिए युद्ध की किताबें होती हैं धार्मिक नहीं, वे अधर्मी-धार्मिक की बात करती हैं, मुसलमान ग़ैर मुसलमान की नहीं।‘
युद्ध के आदेश निर्देश हरेक धार्मिक ग्रंथ में पाए जाते हैं। बाइबिल में भी पाए जाते हैं और वेद में भी। ऊपर हमने अपने कमेंट में स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य जी की पुस्तक ‘इस्लामःआतंक या आदर्श‘का लिंक दिया है। उसमें भी स्वामी जी ने वेद का उद्धरण दिया है-
मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर : ।
विदुष्टं तस्य मेधिरास्तेषां ॠवांस्युत्तिर ॥
-ऋग्वेद , मण्डल 1 , सूक्त 11 , मन्त्र 7
भावार्थ - बुद्धिमान मनुष्यों को इश्वर आदेश देता है कि -
साम , दाम, दण्ड , और भेद की युक्त से दुष्ट और शत्रु जनों का नाश करके विद्या
और चक्रवर्ती राज्य कि यथावत् उन्नति करनी चाहिये तथा जैसे इस संसार में कपटी
, छली और दुष्ट पुरुष वृद्धि को प्राप्त न हों , वैसा उपाय निरंतर करना चाहिये
।
-हिंदी भाष्य महर्षि दयानंद
अत: पैम्फलेट में दी गयी आयतें अल्लाह के वे फ़रमान हैं , जिनसे मुस्लमान अपनी
व एकेश्वरवादी सत्य धर्म इस्लाम की रक्षा कर सके । वास्तव में ये आयतें
व्यवाहरिक सत्य हैं । लेकिन अपने राजनितिक फायदे के लिए कुरआन मजीद की इन
आयतों की ग़लत व्याख्या कर उन्हें जनता के बीच बंटवा कर कुछ स्वार्थी लोग ,
मुसलमानों व विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच क्या लड़ाई-झगडा करने व घृणा
फैलाने का बीज बो नहीं रहे ?
आप वेद को धार्मिक ग्रंथ मानते हैं या युद्ध की किताब ?
सत्य पक्ष और असत्य में विरोध और युद्ध का लंबा इतिहास है। इसलिए अगर धर्मग्रंथ आक्रमणकारी अधर्मियों से युद्ध की अनुमति व आदेश दे, इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। यही वजह है कि हम प्राचीन धर्मग्रंथों के युद्ध संबंधी आदेशों को भी इसी भावना से देखकर उसका औचित्य समझ लेते हैं, जो कि आपकी समझ में नहीं आता या आप जानबूझ कर समझना ही नहीं चाहते।
आभार डॉ. साहब ये सब समझदार नासमझ हैं इन्हें शायद नहीं ही समझाया जा सकता है
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