इस्लाम में औरत का मुकाम : एक झलक
विश्व महिला दिवस
इस्लाम को लेकर यह गलतफहमी है और फैलाई जाती है कि इस्लाम में औरत को कमतर समझा जाता है। सच्चाई इसके उलट है। हम इस्लाम का अध्ययन करें तो पता चलता है कि इस्लाम ने महिला को चौदह सौ साल पहले वह मुकाम दिया है जो आज के कानून दां भी उसे नहीं दे पाए।इस्लाम में औरत के मुकाम की एक झलक देखिए।
जीने का अधिकार
शायद आपको हैरत हो कि इस्लाम ने साढ़े चौदह सौ साल पहले स्त्री को दुनिया में आने के साथ ही अधिकारों की शुरुआत कर दी और उसे जीने का अधिकार दिया। यकीन ना हो तो देखिए कुरआन की यह आयत-
'और जब जिन्दा गाड़ी गई लड़की से पूछा जाएगा, बता तू किस अपराध के कारण मार दी गई?" (कुरआन, 81:8-9)
यही नहीं कुरआन ने उन माता-पिता को भी डांटा जो बेटी के पैदा होने पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं-
'और जब इनमें से किसी को बेटी की पैदाइश का समाचार सुनाया जाता है तो उसका चेहरा स्याह पड़ जाता है और वह दु:खी हो उठता है। इस 'बुरी' खबर के कारण वह लोगों से अपना मुँह छिपाता फिरता है। (सोचता है) वह इसे अपमान सहने के लिए जिन्दा रखे या फिर जीवित दफ्न कर दे? कैसे बुरे फैसले हैं जो ये लोग करते हैं।'
(कुरआन, 16:58-59)
http://www.islamicwebdunia.com/2013/03/blog-post_8.html#.UTmtv9Ya56E
1 comments:
दुख का निवारण औरतों को उनके हक़ देने में है
क़ुरआन औरत को सम्मान से जीने का पूरा विधान दे चुका है और बहुत से अधिकार भी। दुख की बात यह है कि मुसलमानों की एक बड़ी क़ुरआन से ग़ाफ़िल है। अगर मुसलमान क़ुरआन में दिए गए सारे अधिकार औरतों को दे दें तो इससे औरत के मसायल हल हो सकेंगे और एक मुकम्मल नमूना अमली तौर से सामने देखने के बाद कोई इस्लाम पर ऐतराज़ भी न करेगा।
हमारी बदअमली इसलाम पर ऐतराज़ का सबब बन रही है। अपनी ही बीवियों और बेटियों के हक़ मार कर हम उन्हें कमज़ोर बना रहे हैं। बंदों के हक़ मारने वाला ख़ुदा के ग़ज़ब का शिकार होता है और जो कमज़ोर के हक़ मारता है। उस पर अल्लाह का अज़ाब और ज़्यादा सख्त होता है।
मुसलमान जिन दुखों में घिरे हैं। औरतों को हक़ देना, उन दुखों से निकलने का एक बड़ा ज़रिया ह। लिहाज़ा मुसलमानों को तौबा करके अपना सुधार लेना चाहिए।
तभी दुनिया जानेगी कि औरत को औरत की हैसियत से सम्मान सिर्फ़ इसलाम देता है।
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