भारत में जब-जब सत्ता निरंकुशता की और बढ़ी है और उसके प्रति जनता का आक्रोश बढ़ा है एक राजनैतिक संत का आगमन हुआ है जिसके पीछे पूरा जन-सैलाब उमड़ पड़ा है. महात्मा गांधी से लेकर अन्ना हजारे तक यह सिलसिला चल रहा है. विनोबा भावे, लोकनायक जय प्रकाश नारायण समेत दर्जनों राजनैतिक संत पिछले छः-सात दशक में सामने आ चुके हैं. इनपर आम लोगों की प्रगाढ़ आस्था रहती है लेकिन सत्ता और पद से उन्हें सख्त विरक्ति होती है. अभी तक के अनुभव बताते हैं कि राजनैतिक संतों की यह विरक्ति अंततः उनकी उपलब्धियों पर पानी फेर देती है
बुज़ुर्ग लोग (फ़रिश्ते सब बातों को) लिखने वाले (केरामन क़ातेबीन) (11)
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बुज़ुर्ग लोग (फ़रिश्ते सब बातों को) लिखने वाले (केरामन क़ातेबीन) (11)
जो कुछ तुम करते हो वह सब जानते हैं (12)
बेषक नेको कार (बेहिश्त की) नेअमतों में होंगे (...
1 comments:
संत तो समाज सुधर तक सीमित रह सकते है. पद लेना उनका काम नहीं. सही बात है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई आसान नहीं.
यदि मीडिया और ब्लॉग जगत में अन्ना हजारे के समाचारों की एकरसता से ऊब गए हों तो मन को झकझोरने वाले मौलिक, विचारोत्तेजक हेतु पढ़े आलेख-
अन्ना हजारे के बहाने ...... आत्म मंथन http://sachin-why-bharat-ratna.blogspot.com/2011/08/blog-post_24.html
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