अब नहीं सूरते-हालात बदलने वाली.
फिर घनी हो गयी जो रात थी ढलने वाली.
अपने अहसास को शोलों से बचाते क्यों हो
कागज़ी वक़्त की हर चीज है जलने वाली .
एक सांचे में सभी लोग हैं ढलने वाले
जिंदगी मोम की सूरत है पिघलने वाली.
फिर सिमट जाऊंगा ज़ुल्मत के घने कुहरे में
देख लूं, धूप किधर से है निकलने वाली.
एक जुगनू है शब-ए-गम के सियहखाने में
एक उम्मीद है आंखों में मचलने वाली.
4 comments:
एक जुगनू है शब-ए-गम के सियहखाने में
एक उम्मीद है आंखों में मचलने वाली.
उम्मीद कायम रहे. बहुत सुन्दर गज़ल
उम्दा ग़ज़ल...
सादर आभार...
बेहतरीन!
अपने अहसास को शोलों से बचाते क्यों हो
कागज़ी वक़्त की हर चीज है जलने वाली .
वाह!
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