अब नहीं सूरते-हालात बदलने वाली.
फिर घनी हो गयी जो रात थी ढलने वाली.
अपने अहसास को शोलों से बचाते क्यों हो
कागज़ी वक़्त की हर चीज है जलने वाली .
एक सांचे में सभी लोग हैं ढलने वाले
जिंदगी मोम की सूरत है पिघलने वाली.
फिर सिमट जाऊंगा ज़ुल्मत के घने कुहरे में
देख लूं, धूप किधर से है निकलने वाली.
एक जुगनू है शब-ए-गम के सियहखाने में
एक उम्मीद है आंखों में मचलने वाली.
5 comments:
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
एक जुगनू है शब-ए-गम के सियहखाने में
एक उम्मीद है आंखों में मचलने वाली.
उम्मीद कायम रहे. बहुत सुन्दर गज़ल
उम्दा ग़ज़ल...
सादर आभार...
बेहतरीन!
अपने अहसास को शोलों से बचाते क्यों हो
कागज़ी वक़्त की हर चीज है जलने वाली .
वाह!
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