ब्लॉगिंग की दुनिया में ऐसा कम ही होता है कि कोई कमेंट एक यादगार कमेंट बन जाए।
इल्म ए जफर का उसूल है कि हरेक सवाल में ही उसका जवाब छिपा होता है।
हमारे प्रिय प्रवीण शाह जी के कमेंट को देखकर हमें यही नज़र आया है कि हां, सच में ही अगर सवाल करने वाला अपने सवाल पर ही ढंग से ग़ौर कर ले तो उसका सवाल ही उसे जवाब दे सकता है।
प्रिय प्रवीण जी का यह कमेंट हमारी बहन शिल्पा मेहता जी के सवाल के जवाब में है , आप भी देखिए -
इल्म ए जफर का उसूल है कि हरेक सवाल में ही उसका जवाब छिपा होता है।
हमारे प्रिय प्रवीण शाह जी के कमेंट को देखकर हमें यही नज़र आया है कि हां, सच में ही अगर सवाल करने वाला अपने सवाल पर ही ढंग से ग़ौर कर ले तो उसका सवाल ही उसे जवाब दे सकता है।
प्रिय प्रवीण जी का यह कमेंट हमारी बहन शिल्पा मेहता जी के सवाल के जवाब में है , आप भी देखिए -
.
.
.
" मैंने यह पोस्ट आपके धर्म पर आक्षेप लगाने को लिखी है - क्योंकि मैंने इसके लिए नहीं लिखी - यह मैं और मेरे ईश्वर जानते हैं ( जिन्हें आप अल्लाह के नाम से बुलाते हैं - उन्हें मैं ईश्वर के नाम से बुलाती हूँ ) उन्ही ईश्वर की प्रेरणा पर ही मैंने यह पोस्ट लिखी है - उन्ही की प्रेरणा पर मैं हर कार्य करती हूँ | तो जब लोग मुझ पर "आक्षेप करने" का आक्षेप लगाते हैं - तो वे ( अनजाने में ही सही ) मुझ पर नहीं बल्कि उसी परवरदिगार पर आक्षेप लगाते हैं | अल्लाह सिर्फ आपके ही नहीं - मेरे भी अल्लाह हैं, रहीम हैं - मुझे बुरा भला कहना भी उनके ही एक बन्दे को बुरा भला कहना है |"
आदरणीय शिल्पा जी,
विनम्रता पूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि मैं कहीं पर भी बात को घुमाने का प्रयास नहीं कर रहा... आपके इस आलेख में मुझे दो अलग अलग किस्म की आस्थाओं का टकराव दिख रहा है साफ-साफ और उसी को रेखांकित किया है मैंने... अब ऊपर उद्धरित अपनी ही पंक्तियों को देखिये... ईमान पर कायम, पाँच वक्त का नमाजी कोई मुसलमान अगर यह कहे कि-
" यह सोचना गलत है कि मैंने यह कुरबानी आपके धर्म या संवेदनाओं पर चोट लगाने को दी है - क्योंकि मैंने इसके लिए नहीं दी - यह मैं और मेरे खुदा जानते हैं ( जिन्हें आप ईश्वर के नाम से बुलाते हैं - उन्हें मैं अल्लाह के नाम से बुलाता हूँ ) उन्ही अल्लाह की प्रेरणा पर ही मैंने यह कुरबानी की है - उन्ही की प्रेरणा पर मैं हर कार्य करता हूँ | तो जब लोग मुझ पर कुरबानी कर कुछ गलत करने का आक्षेप लगाते हैं - तो वे ( अनजाने में ही सही ) मुझ पर नहीं बल्कि उसी परवरदिगार पर आक्षेप लगाते हैं | ईश्वर सिर्फ आपके ही नहीं - मेरे भी अल्लाह हैं, रहीम हैं - मुझे बुरा भला कहना या मेरे कृत्य पर सवाल उठाना भी उनके ही एक बन्दे को बुरा भला कहना व उस पर सवाल उठाना है।"
तो किसी भी किनारे पर खड़े प्रेक्षक के लिये आप दोनों की बातों का वजन बराबर होगा... आप दोनों ही सही कह रहे हैं... बस दोनों की आस्थायें अलग-अलग हैं... इसीलिये मैंने मित्र गौरव को कहा कि हमारे निष्कर्ष भी हमारी 'आस्था' से ही प्रभावित होते हैं...
.
.
" मैंने यह पोस्ट आपके धर्म पर आक्षेप लगाने को लिखी है - क्योंकि मैंने इसके लिए नहीं लिखी - यह मैं और मेरे ईश्वर जानते हैं ( जिन्हें आप अल्लाह के नाम से बुलाते हैं - उन्हें मैं ईश्वर के नाम से बुलाती हूँ ) उन्ही ईश्वर की प्रेरणा पर ही मैंने यह पोस्ट लिखी है - उन्ही की प्रेरणा पर मैं हर कार्य करती हूँ | तो जब लोग मुझ पर "आक्षेप करने" का आक्षेप लगाते हैं - तो वे ( अनजाने में ही सही ) मुझ पर नहीं बल्कि उसी परवरदिगार पर आक्षेप लगाते हैं | अल्लाह सिर्फ आपके ही नहीं - मेरे भी अल्लाह हैं, रहीम हैं - मुझे बुरा भला कहना भी उनके ही एक बन्दे को बुरा भला कहना है |"
आदरणीय शिल्पा जी,
विनम्रता पूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि मैं कहीं पर भी बात को घुमाने का प्रयास नहीं कर रहा... आपके इस आलेख में मुझे दो अलग अलग किस्म की आस्थाओं का टकराव दिख रहा है साफ-साफ और उसी को रेखांकित किया है मैंने... अब ऊपर उद्धरित अपनी ही पंक्तियों को देखिये... ईमान पर कायम, पाँच वक्त का नमाजी कोई मुसलमान अगर यह कहे कि-
" यह सोचना गलत है कि मैंने यह कुरबानी आपके धर्म या संवेदनाओं पर चोट लगाने को दी है - क्योंकि मैंने इसके लिए नहीं दी - यह मैं और मेरे खुदा जानते हैं ( जिन्हें आप ईश्वर के नाम से बुलाते हैं - उन्हें मैं अल्लाह के नाम से बुलाता हूँ ) उन्ही अल्लाह की प्रेरणा पर ही मैंने यह कुरबानी की है - उन्ही की प्रेरणा पर मैं हर कार्य करता हूँ | तो जब लोग मुझ पर कुरबानी कर कुछ गलत करने का आक्षेप लगाते हैं - तो वे ( अनजाने में ही सही ) मुझ पर नहीं बल्कि उसी परवरदिगार पर आक्षेप लगाते हैं | ईश्वर सिर्फ आपके ही नहीं - मेरे भी अल्लाह हैं, रहीम हैं - मुझे बुरा भला कहना या मेरे कृत्य पर सवाल उठाना भी उनके ही एक बन्दे को बुरा भला कहना व उस पर सवाल उठाना है।"
तो किसी भी किनारे पर खड़े प्रेक्षक के लिये आप दोनों की बातों का वजन बराबर होगा... आप दोनों ही सही कह रहे हैं... बस दोनों की आस्थायें अलग-अलग हैं... इसीलिये मैंने मित्र गौरव को कहा कि हमारे निष्कर्ष भी हमारी 'आस्था' से ही प्रभावित होते हैं...
0 comments:
Post a Comment