ऐसी सूरत चांदनी की.
नींद उड़ जाये सभी की.
एक लम्हा जानते हैं
बात करते हैं सदी की.
हम किनारे जा लगेंगे
धार बदलेगी नदी की.
मंजिलों ने आंख फेरी
रास्तों ने बेरुखी की.
जंग जारी है मुसलसल
आजतक नेकी बदी की.
जाने ले जाये कहां तक
अब ज़रुरत आदमी की.
अब ज़रूरत ही नहीं है
आदमी को आदमी की.
एक जुगनू भी बहुत है
क्या ज़रूरत रौशनी की.
ग़ज़लगंगा.dg: ऐसी सूरत चांदनी की:
'via Blog this'
2 comments:
एक लम्हा जानते हैं
बात करते हैं सदी की.अतर
....बहुत खूब ! बेहतरीन गज़ल...
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
Post a Comment