भारत की धरती पर संतों की लंबी कतार हमेशा से लगी रही। ख़्वाज़ा बख़्तियार काकी के शिष्य बाबा फ़रीद भी उनमें से एक थे। हांसी और अजोधन में सक्रिय रहे बाबा फ़रीद का भारतीय सूफ़ीमत के इतिहास में विशिष्ट स्थान है। उनके
पूर्वज बारहवीं शताब्दी में काबुल से आकर पंजाब में बस गए थे। बारहवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ग़ज़नी और क़ाबुल के बीच की लड़ाई और मध्य एशिया से
मंगोलों के बार-बार के आक्रमण से परेशान होकर कई लोग भारत की ओर चले आए।
क़ाबुल से जो शरणार्थी आए थे, उनमें से एक थे क़ाज़ी शुएब। वे एक विद्वान और
धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। 1157 ई. के आसपास अपने तीन पुत्रों के साथ
वे लाहौर पहुंचे। भारत आगमन के बाद इस परिवार में एक पुत्र का जन्म हुआ ।
सन 1173 ई. में जिस बालक का जन्म हुआ उसका नाम फ़रीद-उद-दीन मसूद रखा गया।
बाद में एक सूफ़ी संत और चिश्तिया सिलसिला के तीसरे प्रमुख के रूप में वे
शैख़ फ़रीद-उद-दीन, गंज-ए-शकर के नाम से प्रसिद्ध हुए। धर्मोपदेशक होने के
नाते उन्हें शैख़ कहा जाता है। भारतीय परंपरा के अनुसार आदर से उन्हें बाबा
कहा जाने लगा।
बाबा फ़रीद का जन्म 1173
ई. में मुल्तान के एक गांव कहतवाल में हुआ था। उनके पिता क़ाजी शुएब ग़ज़नी
शासकों की ओर से खोतवाल के क़ाज़ी थे। यह जगह मुल्तान के महरान और अजोधन के
बीच में है। उनकी मां, हज़रत कुरैशम बीवी, साध्वी स्वभाव की थी और उनके ही
प्रभाव से उनका मन सूफ़ीवाद की ओर मुड़ गया। उनके पिता हज़रत जमाल-उद-दीन
सुलेमान भी क़ुरआन के बड़े ज्ञाता थे और बाद में खोतवाल के क़ाज़ी हुए।
उन्होंने ही बालक फ़रीद के मन में इस्लामिक साहित्य के अध्ययन की ललक जगाई।
उनकी आरंभिक शिक्षा कहतवाल में हुई थी जहां उन्होंने फारसी और अरबी भाषा के
अध्ययन के अलावा क़ुरआन के सिद्धांतों की शिक्षा भी प्राप्त की। 18
वर्ष की उम्र में बाबा फ़रीद मुल्तान चले गए। मुल्तान में बाबा फ़रीद मौलाना
मिनहाजउद्दीन तिर्मिज़ी की मदरसा (पाठशाला) में अध्ययन करते थे, जहां
उन्होंने क़ुरआन और इस्लामी विधि व न्याय व्यवस्था की शिक्षा प्राप्त की।
कहा जाता है कि उन्हें पूरा क़ुरआन कंठस्थ हो गया और वे दिन में एक बार उसका
पूरा पाठ कर डालते थे। उन्हें प्यार से लोग “क़ाज़ी बच्चा दीवाना” कहने लगे।
एक रहस्यवादी संत के रूप में उनकी ख्याति पूरे शहर में फैलने लगी।
उन्हीं
दिनों वहां बालक फ़रीद की भेंट ख़्वाजा बख़्तियार काकी से हुई। वे उनके शिष्य
बन गए और अध्यात्म-साधना में जुट गए। पांच वर्षों तक कांधार में उच्च
शिक्षा ग्रहण कर बाबा ने ईरान, इराक़, ख़ुरासन और मक्का की यात्रा की।
यात्राओं से जब बाबा लौटे तो वे एक अत्यधिक निपुण व्यक्ति थे। वे सुल्तान
की दरबार में उच्चस्थ पद पाने के क़ाबिल थे। लेकिन बाबा फ़रीद का चिन्तन तो
कहीं और था। न उन्हें दरबार की ज़रूरत थी न धन की। वे तो आध्यात्मिक मार्ग
के अनुयायी थे। 1221 में जब ख़्वाजा बख़्तियार काकी दिल्ली गए तो बाबा फ़रीद
भी उनके साथ दिल्ली चले आए।
6 comments:
हमारी पोस्ट को यहां सम्मान देने के लिए आभार।
हमारी पोस्ट को यहां सम्मान देने के लिए आभार।
समाज को सही दिशा दिखाने में जिनका बहुत बड़ा योगदान रहता है । ऎसे सूफी संतो के जीवन के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोग जाने !
बढ़िया प्रस्तुती |
श्री चरणों में प्रणाम ||
Nice post.
धार्मिक एकता की मिसाल है मेरा सोहना गंज शकर बाबा
हक फरीद या फरीद
बाबा फरीद साहब का अदना सा गुलाम
Ricky panipat haryana
08607240786
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