प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मार्केंडेय काटजू ने इलेक्ट्रोनिक और सोशल मीडिया के नियमन की जरूरत पर बल दिया है. इसके लिए उन्होंने प्रेस काउंसिल अक्त 1978 में संशोधन का आग्रह किया है. वे इन दोनों मीडिया को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के दायरे में लेन के पक्षधर हैं. इस ब्लॉग पर 20 अगस्त के पोस्ट में मैंने भी इस तरह के विचार रखे थे लेकिन मेरी अवधारणा थोडा भिन्न है. काउंसिल शिकायतों की सुनवाई करने वाली एक संवैधानिक संस्था है. मेरे विचार में सोशल मीडिया के अंदर गड़बड़ी फ़ैलाने या इसका दुरूपयोग करने वालों को नियंत्रित करने के लिए इतनी लंबी प्रक्रिया कारगर नहीं होगी. यह प्रिंट की अपेक्षा फास्ट मीडिया है इसलिए अफवाहों को कुछ ही क्षणों में जवाबी कार्रवाई कर निरस्त करने के जरिये ही इसपर नियंत्रण पाया जा सकता है. इसके सेवा प्रदाता अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क का संचालन करते हैं इसलिए कानूनी प्रक्रिया बहुत पेचीदा हो सकती है. राष्ट्रहित में इसपर नियंत्रण के लिए एक्टिविस्ट किस्म के लोगों की एक टीम होनी चाहिए जो इस मीडिया में दखल रखते हों. वे काउंसिल के दायरे में काम करें लेकिन उनका विंग अलग हो तभी बात बनेगी. हमला जिस हथियार से हो जवाब भी उसी हथियार से देना होता है. यह प्रोक्सी वार का जमाना है. इसका जवाब एक्टिविज्म के जरिये ही दिया जा सकता है. दूसरी बात यह कि आरएनआई, ड़ीएवीपी जैसी संस्थाओं में कुछ अहर्ताओं के आधार पर भारतीय वेबसाइट्स को सूचीबद्ध कर उन्हें और जवाबदेह बनाने की संभावनाओं पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.
---देवेंद्र गौतम
fact n figure: सोशल मीडिया के एक्टिविस्ट टीम की जरूरत:
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भारत, भारत का स्वाभिमान, भारत का संविधान बचाना है, तो बसों में रोटी सांटे,
भीड़ भरकर रैलियां करने से कुछ नहीं होगा, कोंग्रेस को खुद ओरिजनल समर्पित
कोंग्रेस की तरफ लौटकर आना होगा, कोंग्रेस को उसके अपने संविधान, उसके अपने
अनुशासन, उसके अपने विधि नियम, उसके अपने स्वाभिमान पर वापस लौटकर आना होगा,
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