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ग़ालिब को खिराजे अक़ीदत पेश करते हुए -
‘मुझको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब यह ख़याल अच्छा है‘
नास्तिक लोग इस शेर को आख़िरत (परलोक) और जन्नत (स्वर्ग) के इनकार के लिए पेश करते हैं लेकिन जानना चाहिए कि इस शेर से मिर्ज़ा ग़ालिब कि मंशा जन्नत का इंकार करना नहीं था बल्कि बिना नेक अमल किये जन्नत पाने के ख़याल को गलत ठहराना था . इसीलिए मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा है कि
कोई उम्मीद बर नहीं आती/कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मु'अय्यन है/नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी/अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़ुहुद/पर तबीयत इधर नहीं आती
27 दिसम्बर को मिर्ज़ा ग़ालिब की जयंती थी. मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग उर्फ “ग़ालिब” का जन्म 27 दिसम्बर 1776 को आगरा के एक परिवार में हुआ था। जिसकी पृष्ठभूमि सैनिक और राजनीतिक थी. वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। उन्हें उर्दू के ऐसे महान शायरों में गिना जाता है। जिनकी शोहरत समय के साथ बढती गयी. ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। 1850 मे शहंशाह बहादुर शाह ज़फर द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को "दबीर-उल-मुल्क" और "नज़्म-उद-दौला" के खिताब से नवाज़ा। बाद मे उन्हे "मिर्ज़ा नोशा" का खिताब भी मिला।
नास्तिक लोग इस शेर को आख़िरत (परलोक) और जन्नत (स्वर्ग) के इनकार के लिए पेश करते हैं लेकिन जानना चाहिए कि इस शेर से मिर्ज़ा ग़ालिब कि मंशा जन्नत का इंकार करना नहीं था बल्कि बिना नेक अमल किये जन्नत पाने के ख़याल को गलत ठहराना था . इसीलिए मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा है कि
कोई उम्मीद बर नहीं आती/कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मु'अय्यन है/नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी/अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़ुहुद/पर तबीयत इधर नहीं आती
27 दिसम्बर को मिर्ज़ा ग़ालिब की जयंती थी. मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग उर्फ “ग़ालिब” का जन्म 27 दिसम्बर 1776 को आगरा के एक परिवार में हुआ था। जिसकी पृष्ठभूमि सैनिक और राजनीतिक थी. वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। उन्हें उर्दू के ऐसे महान शायरों में गिना जाता है। जिनकी शोहरत समय के साथ बढती गयी. ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। 1850 मे शहंशाह बहादुर शाह ज़फर द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को "दबीर-उल-मुल्क" और "नज़्म-उद-दौला" के खिताब से नवाज़ा। बाद मे उन्हे "मिर्ज़ा नोशा" का खिताब भी मिला।
उन्होने अपने बारे में स्वयं लिखा था,
हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और।
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