25 गैस सिलिंडरों के फटने की घटना को छोड़ दें तो ब्रह्मेश्वर मुखिया का श्राद्धकर्म शांति पूर्वक संपन्न हो गया. 13 जून को इस मौके पर दर्जनों सांसद, विधायक और अन्य जन प्रतिनिधि श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुंचे. इससे पता चलता है कि ब्रह्मेश्वर मुखिया भले ही एक प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन रणवीर सेना के संस्थापक थे लेकिन राजनीतिज्ञों के बीच उनकी अच्छी पैठ थी. वर्ष 2002 में नाटकीय ढंग से गिरफ्तारी से पूर्व उन्हें चेहरे से उनके बहुत करीबी लोग ही पहचानते थे. निश्चित रूप से उनमें सत्ता की राजनीति के खिलाडियों की अच्छी तादाद थी. यह राजनैतिक संपर्क जेल में तो नहीं ही बने होंगे.जाहिर है कि नक्सल विरोध इसका मूल तत्व रहा होगा. अगड़ी जातियों के मतों का आकर्षण भी प्रेरक रहा होगा. यदि नहीं तो क्या किसी नक्सली नेता की मृत्यु पर भी श्रद्धांजलि देने के लिए ये जन प्रतिनिधि जायेंगे?
रणवीर सेना सामंतों और बड़े किसानों के हित में नक्सलियों के साथ हिंसक युद्ध के लिए बनी निजी सेना थी. इसमें मुख्यतः भूमिहार जाति के लोग थे. नक्सलियों से लड़ने के लिए इससे पूर्व बिहार में राजपूतों की कुंवर सेना, सनलाईट सेना, ब्राह्मणों की आज़ाद सेना, कुर्मियों की भूमि सेना जैसी कई सेनाएं बन चुकी थीं. लेकिन वे नक्सलियों से लड़कर मृतप्राय हो चुकी थीं. रणवीर सेना सबसे अंत में बनी और दर्जनों जनसंहारों को अंजाम देकर अगड़ी जातियों की हितैषी खूंखार संस्था के रूप में चर्चित हो चुकी थी. हालांकि इस सेना ने आमने सामने की लड़ाई से हमेशा परहेज़ किया. हरिजनों को नक्सली मान कर अचानक हमले में उनका संहार करना इसकी मुख्य कार्यशैली थी. चाहे वह गांव नक्सल समर्थक हो अथवा नहीं. कहते हैं कि मियांपुर जनसंहार के बाद ब्रह्मेश्वर मुखिया को यह पता चला कि भूमिहारों पर हमला करने वाले नक्सली हरिजन नहीं बल्कि यादव हैं. ब्रह्मेश्वर मुखिया ने पटना में अचानक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर घोषित किया था कि अब उनकी लड़ाई हरिजनों से नहीं यादवों से है. इस वक्तव्य के बाद लालू प्रसाद सबसे ज्यादा परेशां हुए थे. उन्होंने मुखिया के साथ गुप्त बैठक कर भूमिहार और यादव जाति के बीच इस संभावित जंग को रोक दिया था. इसके बाद से ही बिहार में जनसंहारों का सिलसिला थमा था. वर्ग संधर्ष के नाम पर जातीय युद्ध का एक लम्बा दौर चला था.
fact n figure: कुफ्र टूटा खुदा-खुदा कर के:
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