यूं तेरी यादों की कश्ती है रवां शाम के बाद.
जैसे वीरान जज़ीरे में धुआं शाम के बाद.
चंद लम्हे जो गुजारे थे तेरे साथ कभी
ढूंढ़ता हूं उन्हीं लम्हों के निशां शाम के बाद.
एक-एक करके हरेक जख्म उभर आता है
दिल के जज़्बात भी होते हैं जवां शाम के बाद.
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ग़ज़लगंगा.dg: काटने लगता है अपना ही मकां शाम के बाद:
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(ऐ रसूल) क्या हमने तुम्हारा सीना इल्म से कुशादा नहीं कर दिया (जरूर किया)
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सूरए अल इन्शिरा मक्के में नाजि़ल हुआ और इसकी आठ (8) आयतें हैं
ख़ुदा के नाम से (शुरू करता हूँ) जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है
(ऐ रसूल) क्या हमने तुम्ह...
2 comments:
बहुत बढ़िया ।
भाई देवेन्द्र जी-
त्योहारों के बाद सुन्दर गजल पढने को मिली -
शुभकामनायें-
behatarin.....nwinta liye hue prastuti
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