लेखक: नकीबुल हक |
हिन्दू भाई, इस्लाम की नज़र में
मुआहिदा हलफ़ अलफ़ज़ोल में बनू हाशिम, बनू मुत्तलिब, बनू ज़ोहरा और बनू तमीम शामिल थे, इसके मेम्बरान ने भी इस बात का इक़रार किया कि हम मुल्क से बदअमनी दूर करेंगे। मुसाफ़िरों की हिफ़ाज़त करेंगे, ग़रीबों की इमदाद करते रहेंगे, ज़बरदस्त को ज़ेर दस्त पर ज़ुल्म करने से रोका करेंगे। रियासत मदीना में जो दफ़आत मुरत्तिब हुईं उनका ख़ुलासा ये है:
(1) तमाम मुसलमान एक दूसरे को रज़ाकार समझेंगे।
(2) मदीना में रहते हुए ग़ैर मुस्लिमीन को मज़हबी आज़ादी हासिल होगी ।
(3) मदीना का दिफ़ा जिस तरह मुसलमान अपना हक़ समझते हैं इसी तरह ग़ैर मुस्लिमीन पर भी ये ज़िम्मेदारी आइद हुई है ।
(4) ख़ारिजी हमले के वक़्त तमाम अफ़राद मदीना का दिफ़ा करेंगे।
(5) हर क़ातिल मुस्तहिक़े सज़ा होगा।
(6) तमद्दुन और सक़ाफ़ती मुआमलात में ग़ैर मुस्लिमीन को मसावी हुक़ूक़ दिए जाऐंगे।
(7) ग़ैर मुस्लिमीन और मुसलमान एक दूसरे एक के हलीफ़ हैं, वक़्त ज़रूरत एक दूसरे की मदद करेंगे।
(8) अगर दोनों क़ौमों पर कोई हमला करता है तो एक दूसरे का साथ देंगे।
(9) ग़ैर मुस्लिमीन और मुसलमानों में इख़्तेलाफ़ की नौबत आ जाती है तो मुआमला दरबारे रिसालत सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम में पेश किया जाएगा और मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का आख़िरी और क़तई फ़ैसला मंज़ूर होगा।
(10) ग़ैर मुस्लिमीन के ज़ाती मुआमलात में दख़ल अंदाज़ी नहीं की जाएगी।
(11) तमाम तब्क़ात को मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की सियादत व क़यादत तस्लीम नहीं की जाएगी। इन हुक़ूक़ से अंदाज़ा होता है कि यक़ीनन रियासत मदीना मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की सियासी बसीरत की आला तरीन मिसाल है, क्योंकि सहराए अरब के उम्मी नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने उस वक़्त दुनिया को सबसे पहले जामे तहरीरी दस्तूर से मुतआर्रिफ़ कराया जब अभी दुनिया की सियासत आईन या दस्तूर से नाआशना थी। मग़रिबी दुनिया का आईन दस्तूरी सफ़र 1212 ईस्वी में शुरू हुआ जब शाह इंग्लिस्तान (King Jahn) ने मह्ज़र कबीर (Magnacarta) पर दस्तख़त किए जबकि इससे 593 साल क़ब्ल जामे तरीन तहरीरी दस्तूर दुनिया को दिया जा चुका है। इसके बाद 16 दिसंबर 1686 में Bill of Right 1700-1 में the act of settlement और 1911 में The Parliament Act को इख़्तियार किया गया और अमेरिका का Convention Constitution 1787 में और फ़्रांस में क़ौमी असेम्बली ने आईन को मंज़ूरी 1791 में दी। मग़रिब का ये दस्तूर सफ़र 1215 में शुरू हो चुका था, मगर आम आदमी तक इसके असरात पहुंचने में सदियां गुज़र गईं जबकि एक 1 हिजरी रियासत मदीना से शुरू होने वाला इस्लाम का सियासी व आईनी सफ़र 10 साल के कम अर्से में अपने मुंतहाए कमाल को पहुंच गया।
आज हम देखते हैं कि तरक़्क़ी याफ़्ता ममालिक के दसातीर में अमेरीका के दस्तूर को 7000 अल्फ़ाज़ का मुख़्तसर तरीन मिसाली दस्तूर क़रार दिया जाता है, मगर सवा चौदह सौ साल क़ब्ल मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का दिया हुआ 730 अल्फ़ाज़ पर मुश्तमिल मीसाक़े मदीना इससे कहीं ज़्यादा जामे, मोअस्सर और मोकम्मल दस्तूर है जिसमें तमाम तब्क़ात के हुक़ूक़ का तहफ़्फ़ुज़ किया गया है मुख़्तलिफ़ रियासती वज़ाइफ़ की अदायगी का तरीकएकार तय कर दिया गया है।
रियासत मदीना के ज़िम्न में ये बात अर्ज़ की जा सकती है कि इन ममालिक में जहां मुसलमानों के अलावा दूसरी कौमें रहती और बसती हैं और एक मज़हब के बजाय कई मज़ाहिब और एक क़ौमियत के बजाय कई क़ौमों के लोग एक साथ रहते हैं तो ऐसे ममालिक में अक़ल्लियतों ख़ुसूसन मुस्लिम अक़ल्लियत अपने हुक़ूक़ की बाज़याबी के लिए रियासत मदीना को उस्वए कामला समझे, क्योंकि अग़यार व एदा के दरमियान में रह कर जिन मुश्किलात व मसाइब का आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने मुक़ाबला किया और जिस तरह सब्र व इस्तेक़ामत और हिक्मत व मस्लेहत के साथ इस्लाम का पैग़ाम पहुंचाया इससे बढ़ कर और कोई क़ाबिले तक़्लीद अमल नहीं हो सकता। रसूले करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की दावती ज़िंदगी में एक मर्हला जो तक़रीबन नज़रअंदाज किया जाता है, वो रियासत मदीना का जो आलमे इंसानियत की अज़मत रफ़्ता की बाज़याबी का अहम सबब है।
नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने अपनी मसाईए जमीला, हिक्मत व मस्लेहत के ज़रिए किस तरह एदाए इस्लाम को सुरंगों कर लिया और फ़ुतूहात का दरवाज़ा वसी से वसीतर होता चला गया। बड़े दर्द और कर्ब के साथ ये कहना पड़ रहा है कि आज हिंदुस्तान में अक़ल्लियतों बिलख़सूस मुस्लिम अक़ल्लियत के अंदर मुआमलाफह्मी, दूर अंदेशी, दानिश व बीनिश, हिक्मत व मस्लेहत और सियासी बसीरत का फ़ुक़दान है जिसकी बिना पर मुस्लिम अक़ल्लियत का अभी तक कोई मुतालिबा पूरा नहीं किया गया। हुकूमतें आती जाती रहीं मगर आज तक उनकी बुनियादी मसाइल पर अमल दर आमद किसी ने नहीं किया। हाँ अक़ल्लियतों के हुक़ूक़ की बाज़याबी के लिए एसोसिएशन, कमीशन, कमेटियां तश्कील तो की गईं मगर उनको अमलीजामा नहीं पहनाया गया।
हसरत होती है अर्बाबे इक़्तेदार की दग़ाबाज़ियों, चालबाज़ियों, मक्कारियों, अय्यारियों और मक्र व फरेब पर कि वो हमें सब्ज़बाग़ दिखा कर आज तक हमारे हुक़ूक़ का इस्तेहसाल करते रहे। इसलिए मर्कज़ी और रियास्ती हुकूमतों के लिए रियासत मदीना ताज़ियानए इबरत है कि सेकूलर मुल्क में किस तरह अक़ल्लियत और अक्सरीयत के हुक़ूक़ व फ़राइज़ का एहतेमाम किया जाता है। साथ साथ ये भी अर्ज़ कर दूँ कि आज हमारे इदारों, मदारिस, ख़ानक़ाहों और जामिआत में अफ़राद साज़ी, किरदार साज़ी और तर्बियत पर कम तवज्जो दी जा रही है जबकि आज आलमे इंसानियत को मुहज़्ज़ब, शाइस्ता, संजीदा, लायक़, दूरबीं, दूर रस और तर्बियत याफ़्ता अफ़राद की ज़रूरत है कि जो उम्मत के मर्ज़ की सही तशख़ीस कर सकें। रियासत मदीना से हमें ये सबक़ मिलता है कि हम जज़्बात से कम हिक्मत व मसलहेत से ज़्यादा काम लें। ये आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की आला तरीन सियासी बसीरत का शाहकार है कि चंद बरसों में एदाए इस्लाम की साज़िशें, मंसूबे, कोशिशें और औहाम व ख़्यालात ख़ाकसतर हो गए और उन्हें ख़ुद मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की क़यादत और मुसलमानों का एक वजूद तस्लीम करना पड़ा। अगर हम मौजूदा दौर में इन दरख़शां आईन व क़वानीन को नजरअंदाज़ करके अपने हुक़ूक़ की बक़ा व तहफ़्फ़ुज़ की जंग लड़ते रहे तो हमारी पसपाई, नामुरादी मायूसी यक़ीनी है, क्योंकि इस्लाम ने इबादत से ज़्यादा ज़ोर सियासत, मुआमलात, अख़लाक़ियात, संजीदगी, फ़हम व शाऊर और सियासी सूझ बूझ पर दिया है और बातिल परस्तों को महवे हैरत और शुशदर बना दिया और ये साबित कर दिया कि तंग व तारीक दौर में बक़ा सिर्फ़ मिल्लते इस्लामिया की हो सकती है। अगर नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ये मुनज़्ज़म लाइहे अमल तैय्यार ना करते तो जज़ीरतुल अरब तक ही ये उसूल व ज़वाबित महदूद रहते लेकिन नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के सारे उसूल पूरे आलम के लिए लाइहे अमल और मशअले राह हैं। आज के वो मुमालिक जहां हुकूमतें अक्सरीयत दूसरे मज़ाहिब के हामिलीन की है और मुसलमान वहां अक़ल्लियत की हैसियत से जी रहे हैं तो वो रियासत मदीना और सीरत तैय्यबा के तनाज़ुर में रहनुमाई हासिल करें और पुर अमन ज़िंदगी गुज़ारने का मक़सद तैय्यार करके, मुल्क के आईन और अदालत से हक़ हासिल कर सकते हैं और अपने हुक़ूक़ व फ़राइज़ को यक़ीनी बना सकते हैं ।
0 comments:
Post a Comment