सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?
क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.
उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.
मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.
खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.
-----देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: सिलसिले इस पार से उस पार थे
और बाज़ बन्दे ऐसे हैं कि जो दुआ करते हैं कि ऐ मेरे पालने वाले मुझे दुनिया
में नेअमत दे और आखि़रत में सवाब दे और दोज़ख़ की आग से बचा (201) यही वह लोग
हैं जिनके लिए अपनी कमाई का हिस्सा चैन है
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और बाज़ बन्दे ऐसे हैं कि जो दुआ करते हैं कि ऐ मेरे पालने वाले मुझे दुनिया
में नेअमत दे और आखि़रत में सवाब दे और दोज़ख़ की आग से बचा (201)
यही वह लोग हैं ...
2 comments:
तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे...sab kuch kah gayi ye panktiyan.....
ek alag soch liye hue kavita....umda
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