Saturday, May 12, 2012

श्रीधर राघवन का Interview

श्रीधर राघवन चर्चित लेखक का दिमाग चौबीसों घंटें कहानी पैदा करने वाली मशीन की तरह काम करता है. वे अपने न्यूरॉन्स में दौड़ती कई मेगावाट ऊर्जा को संप्रेषित करना रोक नहीं सकते हैं. वे भी इससे सहमत होंगे कि उनकी बातें कभी खत्म नहीं होती हैं. उनके साथ आप समय बर्बाद नहीं कर सकते हैं. वे जिस क्षण कमरे में आते हैं, उसी क्षण काम की बातों पर आ जातें हैं. यह आप पर निर्भर है कि आप उनकी रफ़्तार से कदम मिला सकते हैं या नहीं. वे लगातार बढ़ते ही जातें हैं- कहानियों की बातें, पसंदीदा फिल्मों की बातें, 70 के दशक की 70 एमएम की शख्सियतों की बातें. वे बारीकी से छोटी-छोटी बातों पर चर्चा करने में खुशी महसूस करते हैं.

मिलिए ज़िन्दादिल श्रीधर राघवन से जिनकी बिजली जैसी उपस्थिति आप पर गहरा प्रभाव छोड़ती है. 42 की उम्र में भी वे पूरे उत्साह से उन फ़िल्मों की बातें कर सकते हैं जो उन्होने अपनी किशोरावस्था में पुणे में देखी थीं. इस लेखक के पास, दस प्रतिशत ऊर्जा हस्तांतरण के नियम (टैन परसेंट लौ ऑफ एनर्जी ट्रांसफ़र) की स्क्रीनराईटिंग के संदर्भ में एक दिलचस्प व्याख्या है. इनके पास सिनेमाघरों में जाकर फ़िल्में देखने से जुड़ी बचपन की कई सारी यादें भी हैं. श्रीधर मानते है कि उनकी प्रतिभा उनके शहर पुणे में स्तिथ दो सिनेमाघरों की फ़िल्मों, यानी अलंकार के मैटिनी शोज़ और अपोलो के रेग्युलर शोज़; के बीच पैदा हई.

वे एक कंप्यूटर विज्ञान स्नातक से पत्रकार बनें. उनकी कहानियाँ उनके कॉलेज के दिनों से ही साइंस टुडे, मिरर और डेबोनर जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहीं थीं. कंप्यूटर साइंस में अपनी डिग्री पूरा करने के बाद, वे मुंबई आये और जेंटलमैन पत्रिका में शामिल हो गए जहां वे मुख्य रूप से अपराध के बारे में लिखते थें. यहाँ उन्होने पाँच साल काम किया. पत्रकारिता के दौरान उन्होने बॉम्बे-टाइम्स और मिडडे में हास्य-कॉलम भी लिखें. फिर उन्होने यूटीवी के इनफ़्लाईट विभाग में काम किया और अंत में, एक स्वतंत्र लेखन की तरफ़ मुड़ गये.

श्रीधर का कैरियर सीआईडी (2001 - 2006) और आहट के साथ शुरू हुआ और उनके इन शोज़ के लिए 600-700 एपिसोड्स लिख चुकने के बाद, ख़ाकी (2004) ने उन्हें एक फ़िल्म-लेखक और थ्रिलर के विशेषज्ञ के रूप में पहचान दिला दी. उसके बाद आई दीवार: लेट्स ब्रिंग आर हीरोज़ होम (2004), अपहरण (2005)- जिसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, ब्लफ़मास्टर! (2005), फ़ैमिली- टाइज़ ऑफ़ ब्लड (2006) और चांदनी चौक टू चाइना (2009). दम मारो दम (2011) उनकी कलम से निकली नवीनतम और स्टाइलिश कॉप-फ़िल्म (पुलिस पर आधारित फ़िल्म) है.

(प्रस्तुत है उनसे हुआ साक्षात्कार:)
  
श्रीधर राघवन

हमें श्रीधर राघवन नाम के व्यक्ति के बारे में कुछ बताइए.

मैं ४२ साल का हूँ. एक तमिल, लेकिन वास्तव में एक महाराष्ट्रियन हूँ जिसका जन्म पुणे में हुआ. मैं एक लेखक भी हूँ (हँसते हैं)... और क्या कहूं?
मैं शायद बहुत विस्तार में चला जाऊं लेकिन मेरा पहला जुनून ड्रॉइंग या स्कैचिंग था. बचपन में मैं सोचता था कि मुझे आगे चलकर यहीं करना है. फिर वह कहीं पीछे छूट गया. 12 साल की उम्र में मैं अखबारों और साइंस टुडे:2001, मिरर और डेबोनेर जैसी पत्रिकाओं के लिए अपनी कहानियाँ भेजने लगा था. यह 1983 की बात है. उनमें से कुछ छप गयीं और मैं उत्साहित हो गया. मैंने सोचा कि यही वह काम है जो मैं करना चाहता हूँ.

लेकिन जब आप एक तमिल मध्यम वर्ग के पुणे में रहने वाले ब्राह्मण होते हैं, तो आप के पास एक डॉक्टर, या चार्टर्ड अकाउंटेंट बनने का विकल्प तो होता है पर एक लेखक बनने का नहीं. 80 के दशक में लेखन के बारे में सोचना कोई अव्वल दर्जे की समझदारी की बात नहीं थी. मैंने कंप्यूटर विज्ञान ले लिया. यह भी एक मजाक ही था क्योंकि मैं जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स की प्रवेश-परीक्षा के लिए मुंबई आया था और मेरे पिताजी ने कहा कि कंप्यूटर साइंस की परीक्षा भी दे दो. मैंने कहा ठीक है. खुन्नस में आकर मैंने उस मल्टीपल चॉईस परीक्षा के सवालों के जवाब मनमाने ढंग से टिक कर दिए और पांच मिनट के भीतर बाहर आ गया. मैं किसी तरह उस परीक्षा में सातवें या आठवें स्थान पर रहा. मैंने अपने पिता को बताया कि मैंने तो सवालों को देखा भी नहीं था. उन्होंने कहा, "हो सकता है कि यही तुम्हारी किस्मत में हैं" और मैंने इसे मान लिया. हालांकि यह एक अच्छे कैरियर की तरह लग रहा था, पर मेरा दिल इसमें नहीं था. मेरी क्लास ऐसी थी जहां 30 में से 29 छात्र पूरी गंभीरता से शिक्षक को सुनते थें. और मुझे यह सब नकली लगता था. मैं खुद से कहता था "यह सब खत्म हो जायेगा. यह असली ज़िन्दगी नहीं है." लेकिन जब मुझे एहसास हुआ कि वह सब मेरी असल ज़िन्दगी की सच्चाई बनने जा रहा था, तो मैंने फैसला किया कि मैं यह नहीं करना चाहता था.

तब मैंने एक कहानी डेबोनेर पत्रिका को भेजी थी जिसके प्रमुख तब आदिल जसावाला थें. उन्होने मुझे प्रोत्साहन से भरी था एक सुंदर-सी चिट्ठी भेजी जिसने मुझे इतना प्रेरित किया कि मैं सब कुछ छोड़ कर मुंबई आ गया. मैं सीधे उनके पास गया और उन्हें वो चिट्ठी दिखाई. उन्होने मुझे बताया कि वह वास्तव में एक रिजेक्शन- लैटर था. मैंने इसे फिर से पढ़ा और महसूस किया कि दो पेजों में वे केवल विनम्रता से मुझे यही बता रहे थे कि लिखना मेरे बस की बात नहीं थी. लेकिन मैं तो सब कुछ छोड़-छाड़ कर आ गया था और वापस नहीं जा सकता था. तो मैंने कहा कि "चलो, जर्नलिज़्म ही कर लेते हैं." इस तरह मैं पत्रकारिता से जुड़ गया.

मैंने मिड-डे में इंटर्नशिप किया और फिर एक पत्रिका जेंटलमैन से जुड़ गया, जहां मैंने करीब 5 साल तक काम किया. यह बहुत ही मज़ेदार था और मैंने इससे बहुत कुछ सीखा. यह एक शानदार अनुभव था क्योंकि मैं हमेशा से ही, बल्कि आज भी, एक बड़बड़ाने वाला, शर्मीला और नर्वस-सा इंसान हूँ. पर जिस पल आप एक पत्रकार बनते हैं, आपको आग में झोंक दिया जाता है. आपको पुलिस स्टेशन जाकर एक इंस्पेक्टर से पूछना होता है "क्या आपने उस आदमी को मारा था?" इसके लिए हिम्मत और आत्म विश्वास चाहिए. आपको लोगों से कठोर सवाल पूछने होते हैं. लेकिन धीरे - धीरे यह आपके पूर्वाग्रहों को मिटाने में मदद करता है. तो पत्रकारिता के 4-5 सालों ने मेरी वास्तव में बड़ी मदद की.

इस दौरान मुझे लगने लगा कि मैं आपको खर्च कर रहा हूँ. मुझे लगा कि जो भी मैं लिख रहा था उसका महत्व 2-3 साल में खत्म होने वाला था. तो मैं यूटीवी में शामिल हो गया. मैंने एक अलग तरह के विभाग में काम किया जिसका नाम था इनफ़्लाईट. वहाँ छह- आठ महीनों के दौरान मैंने दो महीने एडिटिंग में, दो महीने कैमरा में और दो-तीन महीने प्रॉडक्शन में बिताये और सब कुछ सीख लिया. यह मेरे लिए एक नि: शुल्क, पैसे देने वाला फ़िल्म-कोर्स बन गया जहां मुझे फ़िल्म-निर्माण के हर पहलू को देखने का मौका मिला. छह- आठ महीनों के बाद मुझे विश्वास हो गया कि अब अगर मैं एक लेखक के रूप में काम शुरू करूंगा तो मैं इसे कर पाऊंगा.

इसके बाद मैं कुंदन शाह से मिला जिन्हें मैं जानता भी नहीं था. वे उन कुछ लोगों में से हैं जिनका मैं सम्मान करता हूँ और इसीलिए मैं उनसे सीखना चाहता था. और कुंदन हैं भी बड़े सज्जन. वे किसी को मना नहीं करते. आप उसने कुछ भी निवेदन कीजिये और वे कहेंगे "चलो, ठीक है." तो मैं उन्हें असिस्ट करने लगा. मैंने कुंदन से वास्तविक लेखन के नियमों के बारे में बहुत कुछ सीखा. उसके बाद मेरी अंजुम (राजाबली) से मुलाकात हुयी.

कुछ समय बाद मैंने मेरे एक दोस्त के लिए एक पायलट एपिसोड लिखा क्योंकि मैं वैसे भी हर समय लिखने की कोशिश कर रहा था. उन दिनों में, पायलट बनाना काफी प्रचलित था. हर कोई एक पायलट एपिसोड बना रहा था. हालांकि हमारे पायलट को स्वीकृति नहीं मिली पर हैरत की बात हुई कि अंजुम, जो बीआई टीवी (यह एक चैनल था जो दुर्भाग्य से बंद हो गया) के लिए काम रहे थें; ने इसे देखा. उन्हें मेरा काम पसंद आया और उन्होने मुझसे पूछा "किसी और के लिए इसी जौन्रे में कुछ लिखना चाहोगे?" मैंने कहा "हाँ, कौन?" उन्होने कहा "बीपी सिंह!" मैंने कहा "बीपी सिंह... ?"
उस समय मैं टीवी के बारे में ज़्यादा नहीं जानता था. तो मैं घर आया और अपने भाई से पूछा, जो फ़िल्मों के बारे में मेरा ऍनसायक्लोपीडिया हैं. उन्होंने कहा "बीपी सिंह गज़ब के आदमी है! क्या तुमने एक शून्य शून्य देखा है?" मैंने कहा "हाँ," क्यूंकि मैं एक महाराष्ट्रियन हूं, इसलिए मैं मराठी जानता हूँ. मुझे नहीं पता था कि उन्होने इसे बनाया था. मेरे भाई ने कहा "जो कुछ भी लिखने के बारे में सीखा जा सकता है वह तुम इस आदमी से सीख लोगे. वे महान हैं." मैंने जाकर श्री सिंह से मुलाकात की. प्रारंभ में, वे मुझे लेकर संशय में थें कि मैं यह कर पाऊंगा या नहीं. वे एक शो आहट बना रहे थें और उन्होने पूछा "क्या तुम यह लिख पाओगे?" मैंने 20-21 की उम्र के आत्मविश्वास से भरकर कहा "ज़रूर!" उन्होने आगे कहा कि "हर हफ़्ते एक कहानी लिखनी पड़ेगी. क्या यह तुमसे हो पायेगा?" मैंने कहा, "हाँ, मैं कर लूँगा." हालांकि वे मुझे लेकर निश्चिन्त नहीं थें पर हमारा साथ अच्छा निभा. मैंने 7-8 साल सीआईडी और फिर आहट लिखा. इस तरह मैं एक लेखक बन गया.

जब मैं कुंदन के साथ काम कर रहा था, तो उन्होने मुझे ऑर्गेनिक राईटिंग के बारे में सिखाया. मेरा तरीका हमेशा से सीधा-सपाट रहा है. मैं हमेशा से प्लॉट के साथ मज़बूत रहा हूँ. हालांकि मुझे लगता है कि मैं कैरेक्टर के साथ उतना मज़बूत नहीं हूँ. तो कुंदन कहते, "चलो इस पर काम करें" और मैं खटाखट कुछ लिख कर उन्हें दे देता. प्लॉट पौइन्ट्स, थ्री एक्ट्स; सब मसाला उसमें होता था. कुंदन इसे देखते और कहते हैं "यह नहीं. ऐसे नहीं." मुझे समझ में नहीं आता था क्यूंकि मेरे मुताबिक सब कुछ मेरी स्क्रिप्ट में मौजूद हुआ करता था. तब कुंदन ने मुझे एक अमूल्य टिप दी थी. मुझे नहीं लगता कि यह बात अब उन्हें याद भी है.

उन्होंने मुझसे कहा, "अपना पूरा प्लॉट ड्राफ्ट लिखो जैसे तुम चाहते हो. अब यह एक वर्जन है, इसके बारे में भूल जाओ. भूल जाओ कि तुम्हारी कहानी में क्या होता है. अब तुम कहानी के किरदार बन जाओ और इसे फिर से देखो. तुम वह इंसान बनो जिसके साथ यह कहानी घट रही है. अब जो तुम्हारे प्लॉट ड्राफ्ट में हो रहा था उनमें से कुछ प्रारंभिक घटनाओं पर प्रतिक्रिया देना शुरू करो. अगर किरदार एक वास्तविक इंसान हो तो तब उसकी यात्रा क्या होगी? अब हुआ यह है कि पहले वाला वर्जन कहानी का एक इनौर्गेनिक प्लॉट ड्राफ्ट था और दूसरा वर्जन एक ऑर्गेनिक ड्राफ्ट है. जिस दिन ये दोनों एक ही दिशा में जाने लगेंगे उस दिन तुम्हारे पास एक अच्छी फ़िल्म होगी!" चाहे वे इसे ऑर्गेनिक-इनौर्गेनिक कहा करते हो पर मेरे लिए यह एक शानदार पाठ था. मैं अभी भी इससे सीखने की कोशिश कर रहा हूँ.

जब मैं बीपी के साथ काम किया तो मुझे मेरा दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सबक मिला. बीपी 'बौइलिंग अ सीन' के बारे में कहा करते थे और मैं सोचता "इसका क्या मतलब?" असल में यह दूध के उबलने के समान है. जब आप चाय के लिए दूध गर्म करते हैं तब एक ऐसा वक्त आता है जहा दूध भयंकर उबल रहा है पर अभी उफ़ना नहीं है. यदि आप इससे ज्यादा गर्म कर दें तो दूध बाहर निकल आएगा और कम रखें तो यह फ्लैट हो जाएगा. वह सही बिंदु आपको ढूंढना होता है जहां दूध उबल भी रहा है और बाहर भी नहीं आया है. इसका मतलब है किसी सीन की अधिकतम नाटकीय संभावना का इस्तेमाल करना. सभी महान निर्देशक जिन्हें हम याद करते हैं जैसे राज कपूर या विजय आनंद; वे सभी जानते थें कि कैसे एक दृश्य से ज़्यादा से ज़्यादा ड्रामा निचोड़ा जाता है.

ज्वैल थीफ़ को लीजिये. एक दृश्य है जहां किसी पार्टी में देव आनंद के पास एक औरत आती है और कहती "मैं तुम्हारी मंगेतर हूँ" और वे इनकार करते हैं. तब उस औरत का भाई (अशोक कुमार) आता है और कहता है "बेशक, तुम ही इसके मंगेतर हो." यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण दृश्य है. इसे फिर से देखें अगर आप यह भूल गए हैं. यह दृश्य छोटी-छोटी चीज़ों को उठाकर शानदार ड्रामा पैदा करता है. कागज़ पर चाहे यह छोटा ही रहा हो पर परदे पर यह बेहतर से और बेहतर होता चला जाता है. आज कोई भी लेखक इस दृश्य को फिर से लिख सकता है, लेकिन वह उस ऊंचाई पर नहीं जा सकता जहां श्री विजय आनंद इसे ले गये थें. इसे ही 'बौइलिंग अ सीन' कहा जाता है. अगर आपके पास इस तरह के 60-100 दृश्य हैं तो आपके हाथ में एक महान फ़िल्म है.

आपने फिल्मों के लिए लिखना कैसे शुरू किया?
मैं एक सफल टेलीविजन लेखक था. मैंने सीआईडी और आहट के 600-700 एपिसोड्स लिखें हैं और सच कहूं तो मुझे इसमें बहुत आनंद भी आया था. एक स्टोरीटैलर के रूप में आपके दिमाग में सैकड़ों बातें घूमती हैं जिन्हें बाहर निकालना ज़रूरी हो जाता है. टीवी ने ऐसा करने में मेरी मदद की. और आपको तुरंत प्रतिक्रियायें भी मिल जाती हैं. आप आज लिखते हैं, एक सप्ताह बाद उसकी शूटिंग हो रही होती है और उसके अगले हफ़्ते आपको रेटिंग्स पता लग जाती हैं!

लेकिन पत्रकारिता की तरह यहाँ भी खर्च हो जाने का एक डर था. मुझे महसूस होता था कि दो साल के बाद इस सब को कोई देखेगा ही नहीं. मानो आप बल्ला लेकर क्रिकेट के मैदान में आये हैं और वहाँ कुछ है ही नहीं.
Source : http://www.fwa.co.in/HINDI/SitePages/From-Film-Desk-ShridharRaghavan.aspx

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