बंद आंखों के सामने है
अतृप्त इच्छाओं का एक कब्रिस्तान......
हर कब्र से उभरती हैं
तरह-तरह की आकृतियां
कुछ डराने वाली
स्याह...खौफनाक
कुछ गुदगुदानेवाली
रंग विरंगी
कुछ सीधी-सादी
कुछ जानी-पहचानी
कुछ अनदेखी...अनजानी
किसी डब्बाबंद फिल्म के
अप्रदर्शित दृश्यों की तरह
घूमने लगती हैं
अवचेतन पटल पर.....
नींद के महासागर की अनंत गहराइयों में
उतरने को बेचैन चेतना के
पांव में लिपट जाती हैं जंजीर की तरह
अपनी यात्रा स्थगित कर
बार-बार लौट आती है चेतना
वापस सतह पर
किसी बेबस गोताखोर की तरह
हर वक़्त जारी रहती है
साकार से निराकार तक की
यह बाधा दौड़.
---देवेंद्र गौतम
ग़ज़लगंगा.dg: बाधा दौड़:
'via Blog this'
और बाज़ बन्दे ऐसे हैं कि जो दुआ करते हैं कि ऐ मेरे पालने वाले मुझे दुनिया
में नेअमत दे और आखि़रत में सवाब दे और दोज़ख़ की आग से बचा (201) यही वह लोग
हैं जिनके लिए अपनी कमाई का हिस्सा चैन है
-
और बाज़ बन्दे ऐसे हैं कि जो दुआ करते हैं कि ऐ मेरे पालने वाले मुझे दुनिया
में नेअमत दे और आखि़रत में सवाब दे और दोज़ख़ की आग से बचा (201)
यही वह लोग हैं ...
1 comments:
बहुत सुन्दर भावप्रणव रचना।
Post a Comment