आज पशु क्रूरता निवारण में कई सरकारी गैर सरकारी संस्थाएं लगी हुई हैं लेकिन पता नहीं क्यों कीट पतंगों की सुधि नहीं ली जाती. आखिर वह भी तो कुदरत के बनाये जीव हैं और डार्विन के सिद्धांतों को माना जाये तो उनका अस्तित्व मनुष्य जाति की उत्पत्ति से बहुत पहले से है. एक मायने में वे बंदर से भी प्राचीन पूर्वजों की श्रेणी में आयेंगे.
हर दिन पता नहीं कितने करोड़ मच्छर बेमौत मारे जाते हैं. कितने ही काक्रोचों की बलि चढ़ती है.माना कि कीट-पतंगो की श्रेणी के जीव अल्पजीवी होते हैं. लेकिन क्या उन्हें स्वाभाविक मौत नसीब नहीं होनी चाहिए. उनकी हत्या के लिये दवायें खुलेआम बाजार में बिक रही हैं. उनका मूल्य उनकी मारक क्षमता के अनुरूप तय किया जाता है. कहीं कोई रोक-टोक नहीं. न जाने कितनी कंपनियां उन्हें मारने के आसान उपायों पर रात दिन शोध करा रही हैं. उनकी नन्ही सी जान सबकी आंखों में कांटा की तरह चुभती रहती है. उनके संरक्षण के लिये कोई कानून नहीं. हाल में गौरैया दिवस मनाया गया. अन्य कई पशुओं और चिड़ियाओं को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्रदान की जाती है. क्या आजतक किसी कीट के लिये कोई दिवस घोषित हुआ. उसके प्रति प्रेम या श्रद्धा का भाव प्रदर्शित किया गया. क्या कीट सुंदर नहीं होते. उन्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए. बताइये भला
---देवेंद्र गौतम
अरे भई साधो......: पशु प्रताड़ना की चिंता तो कीटों की अनदेखी क्यों:
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3 comments:
सबसे पहले तो आपका आशय स्पष्ट होना चाहिए…… क्या आप यह कहना चाहते है कि 1)पशु क्रूरता निवारण के कार्य नहीं होने चाहिए या फिर यह कहना चाहते है कि 2)समग्र सुक्ष्म से सुक्ष्म जीव राशी की सुधि कब ली जाएगी?
मित्र, यदि मात्र मानव क्रूरता तक सीमित रहा जाय तो फिर प्रश्न उठेगा कि पशु क्रूरता की सुधि कौन लेगा। पृथ्वी, पर्यावरण, प्रकृति का समग्रता से चिंतन कौन करेगा?
और अगर बात छोटे कीट से लेकर सुक्ष्म जीव को बचाने की हो तो समग्र पर्यावरण संरक्षण के चिंतन में यह भी सम्मलित ही है। लक्ष्य पाना है तो स्टैप बॉय स्टैप ही आगे बढ़ना होगा। पहले पेड-पोधों के प्रति सजगता फैली क्योंकि वह समस्या सीधे हमारे वातावरण को प्रभावित कर रही थी। अब समग्र पशु क्रूरता व क्षति का निवारण हो तो समग्र पर्यावरण के लाभार्थ, छोटे कीट और अन्ततः सुक्ष्म जीव तक पहुंचा जा सकता है।
भाई सुज जी आपकी प्रतिक्रिया के लिये आभार. इस पोस्ट के जरिये मैं यह कहना चाहता था कि जीव जीव है चाहे वह अमीबा हो या डायनासोर. क्रूरता क्रूरता है चाहे वह मनुष्य के साथ हो या किसी कीट के प्रति. पशु क्रूरता निवारण का कोई विरोध नहीं है. बल्कि क्रूरता के हर किस्म का विरोध होना चाहिए. इस जीवमंडल के हर सदस्य को निधार्रित अवधि तक जीने का अधिकार है. पेड़ पौधों में भी जान होती है. उनके फल तभी तोड़े जायें जब वह पककर तैयार हो जायें. क्या आप यह महसूस नहीं करते कि आज का मनुष्य क्रूरता की अंतिम सीमा लांघता जा रहा है. झारखंड के अखबारों में आज एक खबर छपी है कि खूंटी के एक व्यक्ति ने अपने माता पिता, भई और चाचा समेत छह लोगों को कुल्हाड़ी से मार डाला. बाद में ग्रामीणों ने उसे घेरकर मार डाला. वह विक्षिप्त बताया गया है. इसे आप क्या कहेंगे. आदिवासी बहुल इलाकों में आये दिन इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं. यह प्रवृत्ति आखिर कहां से उभरती है. इसपर विचार किये जाने की जरूरत है. हमारे अंदर प्रेम की भावना का ह्रास हो चुका है. इसके लिये क्रूरता का समूल विरोध किया जाना चाहिए. एेसा मेरा विचार है.
बिलकुल,बँधु!! क्रूरता और हिंसा की प्रवृति को जिस किसी स्तर पर रोके जाने की सम्भावना हो,रोका जाना चाहिए. देवेंद्र जी,आपने सही कहा है,वस्तुत:हमारे जीवन व्यवहार और खान-पान में हिंसा और हत्या का बोलबाला हो गया है, इसी कारण मनुष्य की सम्वेदनाएँ कुंद होती जा रही है और परिणाम स्वरूप हिंसक मनोवृति पनप रही है. जो हमारे आचार विचार को क्रूर बनाए, सर्वप्रथम उस हिंसा के निवारण का उपाय तत्काल किया जाना चाहिए. आपके करूणाप्रधान आशय के लिए आभार!!
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