नास्तिकता निराशा से भर देती है Nastik
आज हिंदुस्तान (अंक दिनांक 15 सितंबर 2012) में ख़ुशवंत सिंह जी का लेख पढ़ा।
ज़िंदगी की ऐश लेने के लिए जितनी भी ज़रूरी चीज़ें हैं वे सब उनके पास हैं।
इसके बावजूद वह ज़िंदगी से आजिज़ आ चुके हैं। वह लिखते हैं-
अब मैं अपनी जिंदगी से आजिज आ गया हूं
खुशवंत सिंह, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार
पिछले 15 अगस्त को मैं 98 साल का हो गया। फिलहाल मेरी सेहत का बुरा हाल है।
इसलिए यह कॉलम लिखना बहुत मुश्किल हो गया है। मैं पिछले सत्तर साल से लगातार
लिखता रहा हूं। लेकिन अब तो सच यह है कि मैं मरना चाहता हूं। मैंने बहुत जी
लिया। अब मैं जिंदगी से आजिज आ गया हूं। आगे देखने के लिए मेरे पास कुछ भी
नहीं है। मैं जो भी... more »
2 comments:
निराशा और पीड़ा भरे ये शब्द उनके मुंह से क्यों निकल रहे हैं ?
...क्योंकि उन्होंने ज़िंदगी को अपने तरीक़े से जिया न कि उस तरीक़े से जैसे कि ज़िंदगी देने वाले ने बताया है। अपने तरीक़े से ज़िंदगी जीने वाले की सबसे बड़ी नाकामी यह होती है कि वह कभी नहीं जान पाता कि मौत की सरहद के पार उसके साथ क्या होने वाला है ?
यही चीज़ इंसान को निराशा से भर देती है। नास्तिकता निराशा से भर देती है
ध्यान रहे कि ख़ुशवंत सिंह जी ख़ुद को नास्तिक बताते हैं।
क्या बात है डॉ .अनवर ज़माल जी .बहुत खूब विश्लेषण किया है .
अछि प्रेरणा देती पोस्ट है.
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